आज, हिन्दी आई मेरे घर
आज, हिन्दी आई मेरे घर
घंटी बजी
दरवाजा खोला
तो देखा
हिंदी आई है।
अपने सुने नैनों से,
एक- टक मुझे
निहारे जा रही है।
पूछना चाहता था
की "कैसी हो हिंदी?"
लेकिन उसके दशा
देख मुझे
दुर्दशा की याद
आ गई ।
बिखरे बाल ,
सुनी आंख ,
सूखे होंठ ,
और बेरंग गाल।
देख कर
सवाल का निवाला
अंदर ही घोट गया।
कैसे , किसने ,और क्यों?
बस यही
प्रश्न चिन्ह
गले में घूम रहे थे।
न जाने कौन- सा
सवाल- ऐ-बम
जुबा खोलते ही
बाहर आ जाए।
इसलिए होठों को,
थोड़ा ऊपर उठाया
और हल्की- सी ,
मुस्कान से कहा
" कम इन हिंदी ।"
यह सुनते ही
उसकी सुनी आंखें
लाल हो गई ,
और फिर गीली हो गई।
उसने अपना
दाया हाथ ,
आगे बढ़ाया
और एक सफेद पर्चा
थमा के चली गई।
ना कुछ कहा ,
ना कुछ बोला ,
लेकिन उसके जाते ही
मन भारी-सा हो गया ।
सवाल-ऐ- सवाल
मन मे छा-सा गया ।
" किसने की हिंदी की ये दशा? "
सवाल से
दिमाग घूम- सा गया।
फिर नजरें दौडी़
और सफेद पर्चे
पर पडी़,
सोचा आखिर है क्या
ये भला।
देखा तो एक आमंत्रण पत्र था,
" हिंदी दिवस " का
अर्थात "हिंदी का जन्मदिन"
आज था।
अब
सवाल का पता नहीं
पर जवाब-ऐ- बम
ने मन को तार- तार
कर दिया।
और सोचने पर
मजबूर कर दिया ,
"क्या मैं इस दिन को भूल गया ?"