आस...
आस...
सबकुछ लूटाकर भी
अब तक हमारी
आस ज़िंदा है, डॉक्टर साहब!
ये ज़िन्दगी भी
हम इंसानों को न जाने
क्या-क्या रंग दिखाती है...!!!
कितने अरमानों से हमने
सपने जो बुना किये...
उन्हें हमने एक ही झटके में
नेस्तनाबूत होते देखा है...!!!
कैसी तड़प है ये, हमसे ज़्यादा
भला कौन महसूस कर पायेगा...
ऊपरवाला जाने, हमारे भाग्य में
क्या कुछ लिखा है उन्होंने...
फिर भी, ओ डॉक्टर साहब! हम आपसे
भगवान-सा आस लगाए बैठे हैं...!
अब आप ही जाने कैसे हम
अपनी नैया पार लगाएंगे...
इतनी जद्दोजहद के उपरांत भी...
अपना सबकुछ लूटाकर भी
ज़िन्दगीनुमा कोरे कागज़ पर
हम अपने सपनों की अनमोल छवि
को पुनः अंकित करने की
पुरज़ोर कोशिश में लगे हैं...
बेशक़ हम आपकी 'कर्मदक्षता' पर
भगवान-सा विश्वास करते हैं, ओ डॉक्टर साहब!
तभी तो हम आपके द्वार पर खड़े हैं...!
हम आज भी आस-पे-आस लगाए बैठे हैं...
आपसे बस इतना ही कहना है...
आज इस मक़ाम पर पहुँचकर
हम अपनी बेबसी की
सिसकियाँ सुना करते हैं...!
