आख़िर किसलिये ?
आख़िर किसलिये ?
ग़ुरबती का आलम,
फटे-कपड़े से, ढका तन,
कुछ अख़बार ज़मीन पे,
बैठा रहता, चुपचाप वहीं पे।
आते-जाते, हर किसी को देखता,
न माँगता-न बोलता।
कुछ पैसा, कोई रख देता ,
कोई नज़रें फेर, चल देता।
दिन, महीने और साल गुज़रा।
पर उसका, कभी न हाल सुधरा।
सिकुड़ कर ठंड में दुबक जाता।
फटी चादर से , लिपट जाता।
गर्मी की तपिश झुलसाती,
टूटी प्लास्टिक की बोतल,काम आती।
कहीं से एक प्लेट ले आया था।
जिसमें उसने खाना खाया था।
एक दिन अचानक, भीड़ जमी।
निगाह सबकी वहीं थमी।
नगरपालिका की गाड़ी लगी थी।
हाँ ! वहीं जहाँ भीड़ जमी थी।
बदहवास खामोश पड़ा था।
उम्मीद का बाँध कहीं टूट पड़ा था।
मक्खियाँ भी मंडरा रही थीं,
चींटियाँ भी वहीं सरसरा रही थीं।
शायद उसका कोई न था।
इस दुनिया में वो अकेला ही था।
मुर्दा बोल, गाड़ी में डाल दिया।
सफाई करने को, कर्मचारी पे टाल दिया।
उसके फटे चादर को उल्टा गया।
आँखे फटी ऐसी ,के अंदर न गया।
पाँच-पाँच रुपये मिलकर, दो लाख थे।
आख़िर किसलिये, जो हुए सब ख़ाक थे।
मन में फिर एक सवाल आया।
इतना पैसा बचाकर उसने क्या पाया?
चलो माना भविष्य की चिंता थी,
पर वर्तमान को तो ख़ाक में मिलाया।
इल्ज़ाम किसपे लगाऊँ ?
हाल-ए-दिल किसे सुनाऊँ ?
एक सवाल था सवाल ही रह गया।
जवाब था जिसके पास, वो दुनिया से चला गया।
एक सवाल था सवाल ही रह गया।
हाँ , एक सवाल था सवाल ही रह गया।
ग़ुरबती - ग़रीबी