आदमी
आदमी
रोता हुआ शहर है हैरान आदमी है।
खुद अपने आप का ही मेहमान आदमी है।
ग़म से भरा हुआ है अन्दर वो खूब लेकिन।
खाली सा दिख रहा है वीरान आदमी है।
दिन रात चल रहा है बस यूँ ही बेसबब वो।
कुछ भी नहीं पता है अनजान आदमी है।
खुद को तलाशता है दुनिया की भीड़ में वो।
चुपचाप सा अकेला गुमनाम आदमी है।
धुंधली सी ख्वाहिशें हैं खामोश चाहतें हैं।
है ढूंढता ख़ुशी को हलकान आदमी है।
क्या खूब फलसफा है दुनिया के रिज्क का भी।
दुनिया के फायदे में नुकसान आदमी है।