गाँधी
गाँधी
गाँधी.....
मजबूरी नहीं,
नाम है
मजबूती का।
तभी तो,
खत्म कर दिया उनके शरीर को।
इतना डर था,
उनके विचारों,
उनकी सोच से।
कि,
समझ भी न सके।
सोच भी न सके।
वो नफरत के सौदागर,
कि गाँधी सिर्फ एक शरीर नहीं,
सिर्फ एक नाम नहीं।
समूह है,
लाखों का,
करोड़ों का,
अरबों का।
विचार है,
बोली है,
पंथ है,
सच का,
त्याग का,
प्रेम का,
अहिंसा का।
मानवता का।
विश्व का।
सब जानते हैं।
सब मानते हैं।
सही है।
यही है।
बस,
कुछ ही हैं,
घृणित सोच,
घृणित विचार,
घृणा, और नफरत के व्यापारी।
जो नहीं मानना चाहते,
गाँधी को।
मगर.....,
आखिर में झुकते हैं वो भी
मजबूरी वश
उसी गाँधी के आगे।
गाँधी मजबूत है।
नहीं हारता उनकी नफरत से भी।
हारते हैं आखिर में,
तो गाँधी से नफरत करनेवाले।
गाँधी मजबूर नहीं...
मजबूत है।
अपने प्रेम, सत्य और अहिंसा से।