ऊ तोहार मेहरारू हई का...?
ऊ तोहार मेहरारू हई का...?
"ये तुम क्या कह रही हो भव्या....? होश में तो हो...? तुम भूल रही हो कि मेरे बड़े भैया के बारे में बात कर रही हो। जिन्होंने इस पूरे घर को बनाने में अपनी पूरी जिंदगी स्वाहा कर दी। अम्मा और बाबूजी के गुजर जाने के बाद उन्होंने एक पिता की तरह हम तीनों भाई बहनों को बड़ा किया है !"
शिशिर गुस्से से तमतमा गया।
लेकिन आज भव्या ने भी सोच रखा था कि... वह शिशिर के गुस्से की परवाह नहीं करेगी। और ना ही यह सोचेगी कि बड़े भैया ने इन तीनों भाई बहनों के लिए क्या किया है.....?
उसे सिर्फ यह याद है कि.... इन्हीं बड़े भैया ने उसके लिए क्या किया है। और आज कुछ ऐसा कर गए हैं कि वह इस घर में सहज नहीं रह पा रही है। शाम होते ही उसे डर लगने लग जाता है और पूरे दिन वह असहज रहती है।
इसलिए उसने सुशील की नाराजगी की परवाह किए बगैर दृढ़ शब्दों में कहा...
"शिशिर ! मैं जो कह रही हूं वह बिल्कुल सही है। एक स्त्री पुरुष के स्पर्श और आंखों के भाव को अच्छी तरह समझती है।पितृतुल्य स्पर्श और किसी और स्पर्श में जो अंतर होता है वह एक स्त्री का मन सबसे पहले पहचान लेता है !"
"तो तुम यह कहना चाहती हो कि भैया ने तुम्हें कैसे स्पर्श किया है...?
इस बार शिशिर की आवाज कुछ तेज हो गई थी और शायद ओसारे तक पूछ रही थी जहां तृशाला मौसी धान फटक रही थी।
अगले दिन से सिर जाने वाला था और त्रिशाला मौसी चाहती थी कि वह नए धान का कूटा हुआ चिवड़ा खाकर जाए। इसलिए वह उसके लिए इतनी मेहनत कर रही थी।
शिशिर को अचानक ये ख्याल आया कि कहीं उसकी आवाज या भव्या की बातें त्रिशाला मौसी के कान तक तो नहीं पहुंच गई...? क्योंकि त्रिशाला मौसी एक तरह से चलता फिरता लाउडस्पीकर थी। वह पूरे गांव में बताती फिरती किस घर में क्या हो रहा है...!
दरअसल शिशिर की शादी को अभी जुम्मा जुम्मा एक महीना ही हुआ था।.शादी के लिए उसने एक महीने की छुट्टी ली थी। और कल उसे जाकर शहर में ज्वाइन करना था।
भव्या ने साफ-साफ कह दिया कि वह गांव में अकेली नहीं रहेगी हालांकि उसके दोनों देवर अब बड़े हो गए थे वह हाई स्कूल में पढ़ते थे एक तरह से शिष्य ने भव्या से इसलिए भी शादी की थी कि अब घर में काम करने वाली त्रिशाला मौसी की उम्र हो गई थी पर सोई नहीं संभाल पाती थी तो इसका भी तोड़ निकाल लिया था भव्या ने उसने त्रिशाला मौसी के साथ काम करने के लिए एक और काम वाली लगा ली थी अब बुधनी खाना बनाती और घर के बाकी काम करती थी और तो साला मौसी उसकी मदद कर दिया करती थी एक तरह से घर की व्यवस्था ऐसी हो गई थी कि भव्या नहीं भी रहती तो घर का काम आराम से चलता। और भव्या के पास अपना तर्क था कि एक महीने पहले तो वह घर में नहीं थी तब काम कैसे चलता था और नई-नई शादी में वह अपने पति से दूर क्यों रहे उसने गांव में रहकर अपने जेठ और तीनों दोनों दोनों की सेवा करने के लिए शादी थोड़ी ना की है...?
और देखा जाए तो इधर शिशिर की बात भी सही थी कि...अभी अभी तो नई-नई शादी हुई है। थोड़ा वह इस पहचान घर परिवार को भी पहचान ले। अन्य रिश्तों के साथ कुछ समय बिता ले। उसके बाद अगली बार आकर वह उसे ले जाएगा।
पर आज भव्या ने ऐसी बात कह दी थी कि...उस वक्त तो शिशिर ने उसका मुंह बंद करा दिया था। पर बाद में दलान पर बैठकर वह बस यही सोच रहा था कि कहीं भव्या की बात सही तो नहीं है...?
अगर भव्या की बात एक अंश भी सही हुई तो वह जीते जी मर जाएगा। जिस दद्दा पर उसे इतना गर्व था। आज उनकी वजह से यह कल की आई लड़की इतना कुछ सुना रही है कहीं उसकी बात में सच्चाई तो नहीं...?
खैर...थोड़ी देर बाद दादा जब खेत से आए और उन्होंने लोटे पानी के लिए सीधे भव्या
को आवाज दी तो शिशिर का माथा ठनका।
क्योंकि....वहाँ पर उसके दोनों भाई अनूप और अनुज बैठे हुए थे। उन सब के रहते हुए भी दद्दा का एक स्त्री को आवाज देना अजीब सा लगा।
वह कुछ कहता कि तभी उसने देखा भव्या अपने साथ बुधनी को लेकर आई है। और बुधनी ने लोटे का पानी लेकर दद्दा के पैर
बुलाने का उपक्रम किया तो दद्दा एकदम उखड़ गए और उन्होंने सीधे भव्या की आंखों में देखकर कहा,
"क्यों बहू ? तुम्हारे क्या मेहंदी लगी है तुम मेरे पैर नहीं धुला सकती हो? "
दद्दा जिस अधिकार भाव से भव्या से यह सब कह रहे थे...और उनकी आंखों में जो भाव थे भव्या के लिए... वह एक पुरुष के लिए समझना मुश्किल नहीं था।एक पति को जब उसकी पत्नी को कोई गलत दृष्टि से देखता है एक पति का खून खौल उठता है, भले ही वह उसके रिश्ते में कोई भी क्यों ना लगता हो। आज शिशिर का भी खून खौल उठा था।
पलांश में शिशिर को सब कुछ समझ में आ गया।
वह समझ गया कि...दद्दा भव्या के प्रति आकर्षित हैं।
ओह.... रे.... भाग्य.... यह क्या हो गया है..
?उसके आदर्श दद्दा जिन्होंने माता-पिता बनकर उसकी परवरिश की थी आज उसी की पत्नी पर कैसी गलत नजर रख रहे हैं।
शिशिर बहुत परेशान हो गया। उसकी आंखें आगू कर रही थी और लग रहा था अब वह दद्दा से कुछ बोलने ही वाला है कि.... तभी दालान पर भुंजा लेकर त्रिशाला मौसी आईं।
और कोई समय होता तो शिशिर दुशाला मौसी के हाथ से भुजा की टोकनी लेकर खाना शुरु कर देता लेकिन आज उसका ह्रदय दग्ध होकर गुस्से की अग्नि में जल रहा था। इसलिए उसने कुछ नहीं कहा.
दादा ने त्रिशाला मौसी को कहा कि...
"मौसी ! ,सारा भुंजा बहू को दे दो …वह इसमें प्याज हरी मिर्च और सरसों तेल मिलाकर के लाएगी तो उसके हाथ से मिलाकर खाने में बहुत स्वाद आता है !"
रिसाला मौसी ने अपनी आदत के अनुसार मजाक में खनकती हुई आवाज में कहा...
"काहे रे बिशना...! ऊ तोहरे मेहरारू हई का...? जो उसके हाथ से तोहरा सुआद आवत है। आज तलक तो मौसी के हाथ में ही स्वाद रहल। औउ जे अब ई मौसी के हाथ से कुछ खावल ना भावे तो खुद अपनौ बियाह कर ला !"
त्रिशाला मौसी ने तो यह मजाक में कहा था। और उनकी बात सुनकर सब हंसने भी लग गए थे।
लेकिन तभी शिशिर को एक रास्ता मिल गया । जिससे भव्या की शिकायत भी दूर हो जाती। दद्दा का घर भी बस जाता और रिश्ते भी दागदार होने से बच जाते.
"हाँ.. हम सही कह रही हैं रे शिशुआ...! अब तोहार बियाह हो गईल तो बिशना को भी अब एक मेहरारू की जरूरत लागे लागन हैं। अब ...इहे लगन में चलो बिशना के भी ब्याह करा ही देते हैं !"
सही कहा जाता है... कि घर में कोई बूढ़ा बुजुर्ग जरूर रहना चाहिए। क्योंकि आज त्रिशाला मौसी ने उलझते हुए रिश्तों को इतनी आसानी से सुलझा दिया था कि शिशिर का मन बिल्कुल शांत हो गया।
जब उसने रात में भव्य का हाथ पकड़ कर भावुक होकर कहा मुझे मां माफ कर दो भव्य तब मैंने तुम्हारी बात नहीं समझी थी दरअसल इस घर में सारे पूर्व सीखे और एक बूढ़ी त्रिशाला मौसी थी तुम एकलव्य होना बनकर जवाई तो हो सकता है दद्दा की आंखों में भी तुम्हारे लिए आकर्षण का भाव जागा हो हो सकता है उनका मन भी विवाह करने का किया हो लेकिन संस्कारों से बंधा हुआ एक पुरुष अपनी बात कहता भी तो किससे आदमी साला मौसी ने जो कहा उस बात पर मैं भी गौर कर रहा हूं अब चलो फटाफट दादा के लिए लड़की देखना शुरु करते हैं और हम दद्दा की भी शादी करवाते हैं अब हम दद्दा की भी शादी करवाते हैं !"
अगले दिन सुशील को जाना था वह चला गया फिर जल्दी ही 1 सप्ताह की छुट्टी लेकर आया फिर सब ने मिलजुल कर पास के गांव से बहुत ही सुखद कन्या को ढूंढा।
...भवानी... नाम था। उसका और देवी दुर्गा की तरह ही रूप था बस उसमें एक ही कमी थी कि... कुछ साल पहले ही उसके पति का देहांत हो गया था।
दद्दा की भी उम्र हो गई थी इस उमर में उन्हें कुंवारी लड़की तो क्या मिलती और मिलती भी तो शायद कोई मजबूर लड़की मिलती और जो खुशी-खुशी दद्दा को अपना पति नहीं स्वीकार कर पाती शिशिर ने कई बार दादा से बात करते हुए देखा था गांव के मेले में दुर्गा पूजा के समय और सबसे ज्यादा देखा था मंडली में जय भवानी गाती और दद्दा तबले की थाप देते तो एक ऐसा समा बनता था कि सब मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे.
मेरा बेवकूफ हूं मैं तो शिशिर ने अपने आप से कहा मैं कैसे नहीं समझ पाया कि दद्दा को भी मन करता होगा कि उनका ब्याह हो दद्दा का मन भी स्त्री के संपर्क के लिए तरसता होगा और भवानी के लिए दद्दा के मन में जो प्रेम था वह मैं कैसे नहीं समझ पाया एम था वह मैं कैसे नहीं समझ पाया 1 संस्कारों से बंधा हुआ पुरुष जो घर का बड़ा भाई हो और सारी जिम्मेदारी उसके सिर पर हो वह आगे बढ़ कर अपनी शादी की बात कैसे करता भला...?
आज शाला मौसी ने आगे बढ़कर जो कहा था उससे यह घर को एक दिशा मिल गई दद्दा का भविष्य निश्चित हो गया और भव्य बिल्कुल असहज नहीं थी अब दद्दा उसे बहन की दृष्टि से देखते और प्यार भरी दृष्टि से देखने के लिए अब उनकी मेहरारू भवानी जो थी वह किसी और पर गलत नज़र क्यों डालते...?
इस विवाह से दद्दा खुश थे...
अनुज और अनूप खुश थे...
भव्य ख़ुश थी...
शिशिर खुश था...
पर..
सबसे ज्यादा खुश थी त्रिशाला मौसी।
क्यों ना होती भला....!!!
आखिर... एक बाल विधवा को आज बिना बेटा जने ही बहू का सुख जो मिल रहा था…!
भवानी ने कुशलता से घर संभाला बड़ी ही कुशलता से घर संभाला और त्रिशाला मौसी को एक सास का दर्जा दिया।
भवानी खुद एक विधवा थी इसलिए वह वह दूसरी विधवा के दर्द को अच्छी तरह समझ रही थी अक्सर लोग विधवा को कोई सम्मान नहीं देते उनका कोई कमरा नहीं होता उनका कोई घर नहीं होता उनका कोई रिश्ता नहीं होता आज भवानी ने उन्हें साथ का दर्जा देकर उनकी जिंदगी को एक पूर्णता दी थी ।
अब भव्या को अपने ससुराल से कोई शिकायत नहीं थी। जेठ के रूप में ससुर जैसी इज्जत थी उसके मन में दद्दा के लिए। और भवानी को वह जेठानी के साथ साथ एक सास का भी दर्जा देती थी।
और त्रिशाला मौसी इस परिवार की सबसे पूज्य और सबसे महत्वपूर्ण सदस्य बन गई थीं।
कुल मिलाकर पूरा परिवार एक ऐसे सूत्र में बंध गया था जिसे प्यार का अटूट बंधन कहते हैं।
