जिंदगी तेरे रंग अनेक
जिंदगी तेरे रंग अनेक
न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार आकाश पर चली जा रही थीं। वो आज अधिक मायूस दिख रहा था। अकेले बेड पर पड़ा सामने दीवार को वो एकटक देख रहा था। इस तरह आकाश को मैंने कभी अकेले नहीं देखा। छोटे शिशु की तरह उसके माता-पिता हमेशा उसे घेर कर रहा करते थे। क्या हुआ ..जो इस वक्त यहाँ दोनों में से कोई नहीं हैं ? दिल धक्क से रह गया, मन में अनगिनत विचार हिलोर मारने लगे -- माँ-बाप का इकलौता जवान बेटा, कैंसर के थर्ड स्टेज में यहाँ लाया गया था ! उसे गले का कैंसर था ... होस्पिटलाइजड होने के तुरंत बाद उसके गले का ऑपरेशन हुआ। अत्यधिक चिंताजनक स्थिति रहने के कारण, वो आज एक महीने से आइ.सी.यू. में है। सबको पता है आइ.सी.यू के सभी मरीज सीरियस होते हैं, पर, कैंसर की भयानक पीड़ा, सचमुच असहनीय, अकल्पनीय होती है ! आज के वैज्ञानिक युग में हमेशा नयी-नयी दवाईयों का अविष्कार हो रहा है। फिर भी कैंसर का नाम सुनते ही मृत्यु का आतंक.... आँखों के सामने मंडराने लगता है। नित्य कितने मरीज यहाँ आते-जाते हैं। पर न जाने क्यूँ...मुझे आकाश से बेहद अपनापन हो गया, या कहूँ तो.....।
तीस-पैंतीस वर्ष का आकाश, कृशकाय शरीर, आँखें धसी हुई, लेकिन जीने का अदम्य उत्साह ...। इन्हीं ख्यालों में विस्मृत... मैं उसके बेड के पास कब आ पहुँची पता ही नहीं चला। मुझे देखते ही आकाश बिस्तर से उठकर बैठ गया।
” हेलो...आकाश, कैसे हैं आप ? हाथ बढ़ाइए, पहले बी.पी. चेक करती हूँ।”
अपना हाथ आगे बढाते हुए आकाश आहिस्ते से बोला, “वसुधा ! मुझे पहली बार, आज अकेलेपन से भय लगने लगा था।अभी आप मेरे पास आ गईं ..सच में मुझे बहुत अच्छा लगा। घबराहट भी दूर हो गई। इतने दिनों से आपने दिल लगाकर मेरी काफ़ी सेवा की है, तभी मैं आज चल-फिर पा रहा हूँ। किस मुँह से आपको धन्यवाद कहूँ, समझ में नहीं आता ! “
“अरे... क्या कह रहे हैं आप? मैं नर्स हूँ ... नर्स का यही कर्तव्य होता है। बताइए आंटी और अंकल कहाँ गये ? ”
“अभी कुछ ही देर पहले डॉक्टर राउंड पर यहाँ आये थे। उन्होंने मेरा पुरा चेकअप किया, वो पापा से मुस्करा कर बोले --आकाश अब खतरे से बाहर है, आपलोग इसको लेकर घर जा सकते हैं। लेकिन घर जाने से पहले, आप चैम्बर में आकर मुझसे मिल लीजिये। इसलिए मम्मी-पापा अभी वहीं गये हैं।” कहते हुए आकाश की आँखें नम हो गई, वो छोटे बच्चे की भांति मुझे देखने लगे।
पहली बार ...आज मैं आकाश को इतना अधिक भावुक होते देखा। ढ़ाढ़स बांधते हुए उसके बालों को सहलाते हुए बोली, “इसतरह से आपका चेहरा उतरा देख मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता है| याद है ना ?
आपने शुरू-शुरू में एकबार मुझसे पूछा था, “वसुधा, आपके घर में कौन हैं ?” मैंने कहा था, “कोई नहीं !”
फिर आपने पूछा, “तुम्हारे माता-पिता...भाई या पति ?”
आपके इस प्रश्न से मैं विचलित हो गई थी। वर्षों से अपने अंदर कैद, कुंठित भावनाओं के आवेग को मैं अधिक रोक नहीं पाई। अवरोध के सारे द्वार मानो एकाएक खुल गये, अंदर भरा मवाद बाहर आने लगा। शादी के तीन-चार महीने बाद, मैं अपने पति और सास के साथ ड्राइंग रूम में टीवी देख रही थी। तभी टीवी में एड्स का प्रचार दिखाई दिया। बताया जा रहा था...'एड्स न तो छुआछूत की बीमारी है और ना ही असाध्य रोग। समय पर सही इलाज होने पर... इस रोग से शर्तिया निजात पाया जा सकता है।'
इतना सुनते ही मैं आवेश में आकर बोल पड़ी, “हाँ..मेरी माँ को एड्स था । जैसे ही उनकी बीमारी का पता चला, पापा ने माँ का बहुत इलाज करवाया। जल्द ही मेरी माँ को इस बीमारी से मुक्ति मिल गई और इधर घर में दादी के खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनके मुरझाए आस में एकाएक सुनहरे पंख लग गये ...। वो देवी-देवताओं के आगे विनती करने लगी, ' भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि मेरी दग्ध बगिया फिर से महकेगी। पोता-पोती का खाव्ब लिए दादी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा हर जगह मन्नतें मांगती रहीं।
आखिर, एक दिन किसी फकीर ने दादी के हाथ में अरहूल का एक फूल दिया और साथ में एक ताबीज भी। वो दादी से बोला, “इस फूल को पीसकर पूर्णिमा के दिन, अहले सुबह... आप अपने बेटा-बहू को खाली पेट पिला दीजियेगा। निश्चित रूप से आपकी बहू को संतान सुख प्राप्त होगा। लेकिन...एक बात का ध्यान रखना पड़ेगा, यह ताबीज, बच्चे को छट्ठी के दिन ही गले में पहनाना है। इसके पहनने से बच्चा जीवन पर्यन्त निरोग रहेगा। उसी दिन से से यह ताबीज मेरे गले में है।
बस क्या था, मेरी बात सुनकर पति का पारा सात आसमान पर चढ़ गया और सास जोर-जोर से चिल्लाने लगी, “अरी...ओ करमजली, तुझे इसी घर में आना था ?मेरा भाग्य फूटा जो मैंने अपने बेटे को गंदे खून से रिश्ता जोड़ा। छी: छी: ये लड़की मेरे कुल को भी गंदा कर देगी। बेटा इसे घर में मत रहने दे, अभी बाहर निकाल।"
पति भी अपने माँ के साथ मिलकर मुझे गाली देने लगे। घर में दिनभर कोहराम मचा रहा। रात में भी उनलोगों ने मुझे नहीं बक्शा ...। सारी रात मुझे और मेरे कुल-खानदान को गालियाँ देते रहे। मैं रोती- फफकती .. उनलोगों से कहती रही, “ मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं है, आपलोग मुझ पर विश्वास कीजिये। ले चलिए मुझे डाक्टर के पास।” मेरे लाख हाथ-पैर जोड़ने के बावजूद उनदोनों पर कोई असर नहीं हुआ। रात भर मैं अपने कमरे में अकेली, भूखी-प्यासी बिलखती रही और रह-रहकर अपने दादी को कोसती रही।
दादी ने जब मुझे माँ की बीमारी के बारे में सब बताया था ....तभी उन्हें यह भी बताना चाहिए था... 'कि बेटी, यह दुनिया बहुत जालिम है, भोलेपन को छलती है। '
क्या,भोलेपन की इतनी बड़ी सजा हो सकती है ? मैंने आजतक कभी सपने में भी नहीं सोचा था ! " तभी मेरे अंदर आग धू धू कर जलने लगी। मेरा जख्मी स्वाभिमान चोटायल सांप की तरह फुंफकारकर ... मुझ पर हमला करने लगा।उसी क्षण मैंने तय कर लिया कि आज सबेरे इस घर को छोड़ देना है। जहाँ इज्जत नहीं मिले वह घर कैसा !
झट, एक छोटे से बेग में मैंने अपने कुछ कपड़े तथा सभीजरूरी कागजात के भीतर अपना गहना छुपाकर रख लिया और पौ फटते ही घर से बाहर निकल पड़ी। पति और सास दोनों खड़े मुझे देख रहे थे ।इस वक्त भी किसी ने मुझे जाने से नहीं रोका।
उल्टे सास अपने बेटे से कहने लगी, “ रोक मत...जाने दे इसे ... न इसके कुल का ठिकान है और न ही बिरादरी का पता। सुनते ही मैं तैश में तेज कदम से ... अनजान पथ पर बाहर निकल पड़ी। मन के अंदर सुनामी मचा था, मेरी खुद की जिन्दगी है...अब अपने हिसाब से मुझे जीना है।
इस समय मैं अपने माँ–बाप के पास जाना उचित नहीं समझी। उनपर बोझ बनना मेरे चोटिल मन को स्वीकार नहीं था। मैं इंटर पास थी । किसी दूसरे शहर में जाकर छोटे से लॉज में अकेले रहकर पढ़ाई करने का मन बना लिया।
इसी बीच, मैंने अपने माता-पिता को फोन से सब कुछ बताया । सुनकर वो बहुत व्यथित हो गये। अविलंब उन्होंने मेरे पति और सास से संपर्क करके बिगड़ी बातों को सुलझाने का बहुत प्रयत्न किया ... पर, कोई फायदा नहीं हुआ,सब व्यर्थ रहा ! अंत में हार- थककर माता-पिता मुझे लाज से लेने आये और अपने साथ रहने के लिए मुझसे बहुत हठ करने लगे। पर, मैं मायके हमेशा के लिए रहने नहीं गई !
मेरा स्वाभिमान झुकने का नाम नहीं ले रहा था, मैं अपनी जिद्द पर डटी रही। एक प्रण था---अपने बलबूते पर अब जिंदगी को सार्थक करना है और वही मैंने.. किया भी। अपने गहने बेचकर और बच्चों को ट्यूशन पढाकर, मैंने नर्स का कोर्स किया। बाद में मैं इसी हॉस्पिटल में नर्स बहाल होकर आ गई।
आज चार साल से यहाँ लोगों की सेवा कर रही हूँ। मरीज की सेवा करके जो आनंद मिलता है...आकाश, मैं आपको बता नहीं सकती। सेवा से सच्चे सुख की प्राप्ति होती है। अब मुझे जिन्दगी जीने का और उसे देखने का नजरिया ही बदल गया।
आकाश, आपको याद है न ? यह सब सुनकर उस दिन आप इतने खुश हुए थे कि आपके मुँह से एकाएक निकल गया, “यदि कैंसर जैसी बीमारी मुझे नहीं होती तो.... मैं आपसे...” बस इतना ही कहकर आप मौन हो गये।
ठीक उसी दिन से मन ही मन मैं आपसे प्यार करने लगी थी... शायद आप भी .. ? आप आज घर जाने वाले हैं,इसलिए मैं आपको कुछ देना चाहती हूँ, लीजियेगा ना ...?” अपनी भावनाओं को संभालते हुए मैं उसे एकटक देखने लगी।
“अरे....क्यूँ नहीं, दो मुझे।” अधिकार जताते हुए वो मुझसे बोले।
मैं अपने गले का ताबीज खोलकर उन्हें देने लगी, कि तभी आंटी को इधर आते देखा। मुट्ठी में ताबीज दबाये, मैं चुपचाप स्तब्ध वहीं खड़ी रही। “वसुधा, घबराओ नहीं ... मैं बाहर दरवाजे पर खड़ी होकर तुमदोनों को अभी देख रही थी। “ आंटी मुस्कुराते हुए बोली।
“ ओह ! माँ, बस ये मेरा बी.पी. चेक करने आई थी, आपलोगों के बारे में ही पूछ रही थी।” आकाश बात बदलते हुए अपनी माँ को समझना चाहा।
“वसुधा, आज हमलोगों को यहाँ से छुट्टी मिल गई है। यदि तुम इसीतरह आकाश की देखभाल करती रही तो मेरा बेटा जल्द ही पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाएगा। आकाश ने मुझे तुम्हारे बारे में पहले ही सब बता दिया था। तुम्हारी पिछली जिन्दगी से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं एक माँ हूँ, मेरे अंदर एक स्त्री का दिल भी धड़कता है ..।
दिल की बात कहती हूँ तुमसे, " वसुधा, मैं तुम्हें बहू के रुप में देखना चाहती हूँ। अबतक मेरी नजरों से तुमदोनों का प्यार छिपा नहीं रहा। मैं इतने दिनों से सब चुपचाप देख रही थी । यदि तुम आकाश की धर्मपत्नी बनना स्वीकार करोगी तो हमलोग जीवनपर्यंत तुम्हारे ऋणी रहेंगे। यह मेरा निवेदन मात्र है । बेटी ..फैसला अब तुम्हें करना है।“ बात को पुरा करते -करते आंटी के आँखों में सैलाब उमड़ पड़े। उनकी नजरें मुझसे जवाब मांग रही थीं और उनका आँसू बहते जा रहा था।
मैंने, बस सिर हिलाकर हामी भर दी। आकाश, हतप्रभ मेरी ओर एकटक देखने लगा। उसकी नजरों में खुद को पत्नी का स्थान पाकर मैं धन्य हो रही थी। थोड़ी देर बाद, हम सभी साथ जाने के लिए टैक्सी में बैठ गये। ‘मेरा नया घर..... जीवन की एक नयी सफर.......’ ऐसे विचार अभी मेरे मन को पुलकित कर रहे थे। तभी
टैक्सी ने यू टर्न लिया और एक घर के दहलीज पर आकर खड़ा हो गया।
दहलीज को पार करते ही मेरा वीरान जीवन, अपनों के सानिध्य में खिलखिला उठा।