निष्काम कर्म
निष्काम कर्म
नवरात्रि के नव रंग
(चौथा दिवस पीला रंग)
नौ देवियों के रूप में चौथी देवी, इस संसार की नारीत्व शक्ति हमारी ननद / बुआ को प्रणाम है ।
नवरात्रि का चौथा दिवस माँ कुष्मांडा के नाम है।
पीला रंग आनन्द और प्रफुल्लता का प्रतीक है। आज इंसान जो चीज सबसे ज्यादा ढूंढ रहा है वो है सुख, आनन्द, खुशियाँ। यह जानते हुए भी कि यह अंतर्मन के एहसास है भौतिक वस्तुओं में नहीं मिलेंगे। इंसान मृगतृष्णा की तरह इसे हमेशा भौतिक वस्तुओं में ही ढूंढता है। सबको यह मालूम है या ढूँढने से नहीं देने से मिलते है फिर भी हर कोई इन्हें देना नहीं पाना चाहता है। सुख और आनंद इन शब्दों के अर्थ भले ही समान हो पर ऐसा कहा जाता है सुख शारीरिक और भौतिकता के अर्थ में प्रयुक्त होता है और आनन्द मानसिक और आध्यात्मिक अर्थों में। तो पहले हमें जानना होगा वास्तव में हम चाहते क्या है। सुखी इंसान आनन्दित हो यह आवश्यक नहीं है पर आनन्दित इंसान हर परिस्थिति में सुखी रहता है। चलिये आज की कहानी माँ कुष्मांडा को समर्पित करती हूँ।
एक बहुत ही सुखी परिवार है मेरा । सब कुछ है पति बच्चे , अच्छी नौकरी, मान सम्मान, प्यार और क्या चाहिए। पूजा पाठ भी करती हूँ, दान धर्म भी । संक्षेप में कहूँ तो सुखी इंसान हूँ और इसके लिए भगवान की कृतज्ञ भी हूँ। पर अब बच्चे बड़े हो गए। जिम्मेदारियां कम हो गयी तो एक खालीपन सा लगता है। इतने सालों से जिस धुरी के चारों ओर नाच रही थी मानो वह धुरी ही निकाल दी गयी । पर इतने बरसो से नाचते पैर थमना नहीं चाहते। जिम्मेदारियां जीने का सहारा थी। अब बहुत आवांक्षित सा महसूस होता है। लगता है किसी को मेरी जरूरत ही नहीं। बात बात पर मम्मी चिल्लाने वाली आवाजों के बिना जीवन सूना लगता है।
उस दिन नींद खुल गयी तो सुबह छह बजे के आस पास बिल्डिंग की छत पर चली गयी। मस्त ठंढी हवा बह रही थी। हल्का हल्का धुंधलका था। कुछ तारे भी दिख रहे थे (यहाँ महाराष्ट्र में सूरज सात बजे के आस पास निकलता है)। बिल्कुल वही माहौल जो बरसो पहले गाँव के साथ छोड़ आयी थी। मैंने आँखें बंद करके सुबह की ताजी हवा और उस भूले बिसरे एहसास को अपने अंदर समेटने की चाह में एक गहरी साँस ली। गाँव में तो सुबह चिड़ियों की चहचाहट से होती थी। मैंने बिल्डिंग के चारों ओर लगे पेड़ों पर नज़र डाली। फिर मायूसी से सोचा अब चिड़ियां गौरैया बची ही कहाँ है। श्राद्ध के दिनों में भी कौवे कहाँ आते है (कौवें ही कम हो गए है या पितर अपनी नालायक औलादों से मिलना नहीं चाहते)। उस दिन टी.वी. पर भी दिखा रहे थे कैसे लोंगो ने कौवें पाल रखे है और उन्हें घर घर ले कर जाते है कि लोग श्राद्ध में उन्हें खिला सके। तभी अचानक से पक्षियों के, कौवों के बोलने की आवाजें आने लगी। चारों दिशाओं से पक्षी उड़ते हुए आ रहे थे (यह कोई अतिश्योक्ति नही है, यह सच्चाई है )। मैं डर गई यह क्या है। अचानक से इतने पक्षी और वो भी सभी इसी ओर क्या बात हो गयी। मैं डर गई थी फिर भी मंत्रमुग्ध होकर हलके उजाले में चारों ओर से उड़ कर आते पक्षियों को देख रही थी जो आ आ कर पेड़ो पर बैठ रहे थे और काँव काँव कर रहे थे। कुछ आ कर बिल्डिंग की छत पर, मुंडेर पर भी बैठ गए थे। अरे ये तो कौवें है। बाप रे इतने सारे..... मैं डर कर नीचे जाने लगी।
तभी देखा सामने वाले विंग से एक महिला मेरी परिचिता भाभी ऊपर आयी। उनके हाथों में एक पैकेट था। वह मुझे देख कर मुस्कुराई और बोली, "आज सुबह सुबह आप छत पर" ?
मैंने भी मुस्कुराते हुए अभिवादन करके बोला, "हाँ सुबह नींद खुल गयी तो..। पर आप यहाँ..."
वो बोली, "मैं पक्षियों को दाना डालने आयी हूँ। आओ आप भी आ जाओ । आप भी डालो आ कर।"
उनको देखते ही आस पास के सारे कौवे कबूतर, गौरैया सब पेड़ो से उड़ कर छत पर आ गए। मुझे 'होम एलोन' पिक्चर का दृश्य याद आ गया। उनके साथ साथ मैंने भी कबूतरों को गेहूँ, गौरैया को चावल और कौवों को गाठिया (बेसन के सेंव) डाला। पचास साल की उम्र में पहली बार मुझे मालूम पड़ा, कौवे कच्चा अनाज नहीं खाते वो पका हुआ खाना ही खाते है (क्या आपको मालूम था ?)। "आज की सुबह की शुरुआत बहुत खूबसूरत रही। बड़ा अच्छा लगा", कह कर मैंने उनको धन्यवाद बोला।
वो बोली, "रोज़ आ जाया करो। मैं रोज डालती हूँ।"
मैंने उनसे वादा तो किया रोज आने का। पर बचपन से ही मेरी देर से उठने की आदत है। कोई मजबूरी ना हो तो सुबह छह बजे उठा ही नहीं जाता । एक दो दिन कोशिश भी की पर उठते उठते सवा छह हो गए । ऊपर पहुँची तो सब शांत था मानो कुछ दिन पहले देखे गए सैकड़ों की संख्या में कौवे सपने की बात हो।
एक दिन वो भाभी नीचे मिल गयी। मतलब हम अक्सर ही मिलते थे पर उस सुबह के बाद पहली बार मिले । वो ही बोली, "आप बाद में सुबह आयी नहीं।"
तब मुझे लगा नहीं वो सपना नहीं सच्चाई थी। मैंने मायूसी से कहा, "गयी तो मैं थी, पर ऊपर कोई नहीं था।"
वो हंसते हुए बोली, "हाँ आपको देर हो गयी होगी।"
मैंने बोला, "देर, देर तो नहीं, सवा छह, छह बीस पर मैं आ गयी थी।"
वो बोली, "उनका समय तय है, छह दस का। कभी अगर मैं भी समय से नहीं पहुँचती तो वो मेरा भी इन्तेजार नहीं करते है।"
मैंने कहा, "ओह कितना मुश्किल न। फिर आप पर जिम्मेदारी आ जाती है ना समय पर पहुँचने की।"
वो बोली, " जिम्मेदारी बोझ लगती है। शौक से करो तो आनन्द मिलता है।"
"अरे पर उन की आदत है ना, अगर आप नहीं पहुँची तो उनको खिलायेगा कौन"? मैंने पूछा।
"ऊपरवाला हैं ना, सबको खिलाने के ज़िम्मा उसका है। अब देखो ना मैं मायके जाती हूँ , ससुराल जाती हूँ तब मैं किसको बोलूँ । इनको (उनके पति को ) बोला पर उनसे भी रोज़ रोज़ नहीं हो पाता है। आज फिर जा रही हूँ, ससुराल में कुछ उत्सव है। तो अब क्या करूँ ? जितना होता है उतना करती हूँ।"
दूसरे दिन मेरी नींद जल्दी खुल गयी। वास्तव में मेरे दिमाग में आ रहा था कि बेचारे इतने अतिथि (कौवें, कबूतर) आएंगे और मेरी बिल्ड़िंग की छत से भूखे चले जायेंगे। जब तक नहीं मालूम था तब तक फ़र्क़ नहीं पड़ता था। पर अब मालूम है तो ऐसे कैसे जाने दूँ। फटाफट उठी घड़ी देखा। छह पांच हो रहे थे । राहत की सांस ली। घर में गाठिया तो नहीं था। दो तीन पैकेट पारले जी और अन्य बिस्किट जो मौजूद थे थोड़ी आलू भुजिया जो रखी थी, गेहूँ चावल लेकर मैं दौड़ती हुई छत पर पहुँची कि पाहुने लौट ना जाये।
एक कोने में कबूतर एक कोने में गौरैया झुंड बनाये शायद बाते कर रहे थे कि अभी तक वो आयी नहीं। कौवे छत पर, मुंडेर पर बैठे आकुलता से बाट जोह रहे थे। पर मेरे छत पर पहुँचते ही सब उड़ गए। मुझे बुरा लगा। फिर कबूतरों को गेहूँ , चिड़ियों को चावल डाल कर इंतजार करने लगी कि देखूँ खाते है या नहीं। ऐसा ना हो कि मैं छत पर सब बिखेर कर चली जाऊं और कोई खाये भी ना। मैं अंदर सीढ़ी पर आ कर छुप गयी। झांक कर देखा कोई नहीं आया था। फिर पता नहीं क्या मन में आया जाकर बिस्किट भी तोड़ तोड़ कर डाल दिये और आलू भुजिया भी बिखेर दी। हाथ जोड़ कर बोला, "हाँ मैं कभी नहीं डालती हूँ पर ऐसे घर से भूखे मत जाना।"
मानो वो मेरे कहने का इंतजार कर रहे थे । या वो सारे एक साथ खाना चाहते थे। सब आकर खाने बैठ गए । लिखने कहने में तो समय लगता है, मिनटों बाद छत खाली पड़ी थी। मुझे अंदर से इतना अच्छा लग रहा था। शायद बिल्कुल वैसी ही अनुभूति हुई जैसी पहली बार अपने बेटे को दूध पिला कर हुई थी, शब्दों से परे। मन भी शांत था, आनंदित था। सुबह की ताजी हवा का असर था या उस सुकून का, जो आज बरसो बाद मुझे मिला था।
(वास्तव में यह कहानी समर्पित है उन महिला (भाभी) को। गणित की शिक्षिका हूँ तो ना चाहते हुए भी दिमाग हिसाब कर डालता है। गठिया एक किलो का पैकेट दो सौ रुपये का आता है (हाँ मैं भी खरीद कर लायी ना दूसरे दिन) । वो भाभी रोज एक पैकेट डालती है तो महीने के छह हजार सीधे सीधे, साल के बहत्तर हजार, दो साल में डेढ़ लाख, और वो सालों से डाल रही है बिना किसी प्रदर्शन या चाहत के। हम एक किलो आटा देते वक्त भी फ़ोटो खिंचवाते है। फिर कहते है जिंदगी में सुकून नहीं है। )
सच है निष्काम कर्म ही जीवन को आनन्दित और प्रफुल्लित करते है।