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Dr. Poonam Verma

Abstract

4.3  

Dr. Poonam Verma

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एक सबक

एक सबक

3 mins
440


बचपन तो कई कहानियों का संग्रह होता है। उस में से किसी एक को चुनना बड़ा ही मुश्किल होता है। लेकिन जो कहानी सबक दे जाए उसे हम भूल नहीं पाते ।यह घटना उस समय की है ।जब मेरी उम्र लगभग 10 साल की होगी। मुझसे छोटा 9 साल का भाई और हमारे पड़ोस में रहने वाले हम उम्र भाई-बहन का जोड़ा गर्मी के दोपहर में जब घर से बाहर निकलने सख्त मनाही होती थी।तो चुपके से घर बाहर निकलते ही नहीं बल्कि कंचे ,गिल्ली डंडा जैसे खेल खेलते , क्योंकि इसमे शोर कम होता था ।हमारे पड़ोसी दोस्त के पिताजी कभी-कभी दोपहर में खाना खाने आते थे। अपने बच्चों को भरी दोपहरी में बाहर खेलते देख वहीं से पिटाई करना प्रारंभ कर देते और घर के अंदर ले जाकर भी खुब पिटाई करते थे ।लेकिन बाद में हम लोगों के पूछने पर कितनी पिटाई पड़ी इनकार करते हुए वो दोनों झूठ बोलते थे कि बिल्कुल पिटाई नहीं पड़ी। तब हम चिढ़ाते हुए बताते पिटाई करते समय उन्हें उनके पिताजी क्या -क्या बोल रहे थे और वो लोग कैसे अपनी पिताजी से यह बोलकर माफी मांग रहे थे कि, अब ऐसी गलतीदोबारा नहीं करेंगे वग़ैरह-वग़ैरह। वह दोनों परेशान हो जाते , कि आखिर हमें पता कैसे चलता है? लेकिन यह सारी जानकारी प्राप्त करने का हमारे पास खास तरीका था । हमलोग लोग जिस क्वार्टर्स में रहते थे। दोनों के आंगन के बीच मे दीवार थी,जिसके एक हिस्से में हमलोग और दूसरे हिस्से में वो लोग रहा करते थे।परन्तु दोनों घरों के छत आपस में मिले हुए थे। थोड़ी मुश्किल होती थी। उस दीवार के सहारे छत पर चढ़ने में पर छत पर लगे रोशनदान के सहारे सच जानकर चिढ़ाने में जो आनंद आता था। उसके लिए यह मुश्किल कुछ भी नहीं था। बड़ों ने कितना डराकर समझाया था कि दीवार पर मत चढ़ना ये होसकता है वो हो सकता है। लेकिन बचपन इतना समझदार नहीं होता।शैतानी करना ही अच्छा लगता था।        

उस दिन भी बाकी दिनों की तरह हम लोग खेल रहे थे। तभी उन दोनों के पिताजी आ गए और उन्हें पीटते हुए घर के अंदर ले जाने लगे।ये देख हम लोग भी तत्पर हुए ही थे ।अपने अभियान को अंजाम देने के लिए कि उसी समय नियत समय से पहले ट्यूशन वाले सर ट्यूशन पढ़ाने आ गए। उन्हें जरूरी काम है, इसलिए जल्दी आ गए कारण बताते हुए फटाफट बैठकर पढ़ने के लिए बोले। जरूरी काम था तो आने की जरूरत ही क्या थी? नागा कर देते तो क्या बिगड़ जाता ? कुढ़कर मन बोला था। असहनीय स्थिति में काम का बटवारा ही हमारे लिए एक मात्र विकल्प था। सामान्य स्थिति में हम दोनों बहन -भाई जो बात -बात पर झगड़ते थे। ऐसे सहयोग के बारे में सोच भी नहीं सकते थे।खैर मैंने ऊपर छत पर जाने की जिमेदारी और उसने नीचे ट्यूशन वाले सर को संभालने की जिम्मेदारी ले ली।भाई की मदद से दीवार पर चढ़कर रोशनदान से थोड़ी- बहुत जानकारी लेकर अपने आधे अटके धर को बाहर निकालने की कोशिश की सफल नहीं हो पाई ।वहां पर चार रोशनदान था। जिसमे एक में ही सुगमता से धर अंदर-बाहर कर सकते थे।बाकी में थोड़ी सी दिक्कत थी। हड़बड़ी में यह ध्यान ही रहा । एक- आध मिनट की घुटन भरी के सांस के साथ बहुत मुश्किल से रोशनदान से स्वयं को निकाल पाने में सफल होने के बाद फिर से ऐसा ना करने की ना टूटने वाली कसम खाई।


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