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Meeta Joshi

Inspirational

4.5  

Meeta Joshi

Inspirational

कुर्सी

कुर्सी

4 mins
343


"कावेरी उठो,तुम आज मेरी कुर्सी पर बैठ गईं।"


"जी" कह कावेरी अनमनी सी दूसरी कुर्सी पर जा बैठी।


"क्या बात कहीं बुखार तो नहीं?आज एकबार में कहते ही कुर्सी छोड़ दी!"कमल ने मजाक बनाते हुए कहा।


"कुछ नहीं।सब ठीक है।असल में पहले सिर्फ सुनती थी कि कुर्सी से उतरते ही लोग कद्र नहीं करते।आज ऐसा महसूस हुआ कि वाकई किसी इंसान के लिए कुर्सी कितना महत्त्व रखती है।आपको भी तो रोज इसी कुर्सी में बैठ चाय पीनी होती है।"


"क्या पहेलियाँ बुझा रही हो?सच कहो,क्या कहना चाहती हो?हाँ..कुर्सी से मोह अच्छा नहीं।"कह कमल हँस दिए।


"आपको माथुर अंकल याद हैं?"


"हाँ-हाँ वही पिताजी के मित्र।याद क्यों नहीं होंगे,कितने बुलंद आदमी थे।बहुत रौबीले,वैसी ही आंटी जी।हम छोटे थे तो अक्सर मंदिर के मैदान में खेलते थे।सामने उनका मकान था। यदि गलती से उनके बॉल चली जाती तो वो हिटलर आंटी जो प्रवचन देने शुरू करतीं....पूछो मत।सब बच्चे उन्हें आता देख पहले ही छुप जाते थे लेकिन क्या यार!बुढापा सबका एक सा होता है।अंकल बिचारे लंबे समय तक बीमार रहे.अपनी बालकनी में लगी कुर्सी में बैठ हमारे खेल देखा करते।इतने सक्रिय आदमी को इस स्थिती में देख बहुत लाचारगी लगती थी।"


"मुझे याद है जब मैं शादी होकर आई तो पापा को बाहर से ही तेज आवाज़ लगाकर बुलाया करते।मंदिर में कोई कार्यक्रम होता हमारी सीट पहले ही बुक कर लेते।सच है हाथ में चाहे कितना ही पैसा हो,स्वभाव में कितने ही बुलंदी और शरीर में कितनी भी मजबूती हो....बीमारी कुछ नहीं देखती।मुझे भी याद है एक्सीडेंट के बाद,पांँव खराब हो गए थे तो अंकल ने वहीं बालकनी में एक कुर्सी लगा ली थी।वहीं से मंदिर के दर्शन करते।"


"आंटी-अंकल हमेशा दोनों साथ ही मंदिर आते थे।उनके एक्सीडेंट के बाद आंटी का भी मंदिर आना कम हो गया था। अपनी बहुओं को भी कड़े अनुशासन में रखा करतीं पर बेचारी अंकल की बीमारी के बाद लाचार हो गईं।"कावेरी दुखी होते हुए बोली।


"हाँ कावेरी इंसान का समय कब बदल जाए,कब उसे किसी दूसरे पर निर्भर होना पड़े कौन जानता है।तब भी इंसान अहम,अंहकार में जीवन जीता है।आज तुम्हें उनकी याद कहाँ से आ गई!अब तो सालों हो गए अंकल को गुजरे,उसके बाद तो कभी मैंने आंटी को देखा भी नहीं।"


कावेरी ठंडी आह भरते हुए बोली,"आजकल घूमने जाती हूँँ ना।बालकनी में रखी जिस कुर्सी पर अंकल बैठा करते थे,आजकल आंटी बैठी होती हैं।चेहरे का रौब कहीं चला गया है।तरसती नजरों से मंदिर की तरफ ही देखती रहती हैं।कहने को तो भरा-पूरा घर-परिवार है लेकिन आज वही बहुएँ उन्हें पूछती भी नहीं।"


"तभी कहते हैं कावेरी वक्त सबका आता है फिर समय रहते दो मीठे बोल-बोलकर सामने वाले को अपना बनाने का लोग क्यों नहीं सोचते।"


कावेरी मन की कह-सुन लग गई अपनी दिनचर्या में।


ऑफिस से पतिदेव का फ़ोन आया,"अरे यार!कावेरी मैं कहना भूल गया,मंदिर में पापा के नाम की कुर्सी लगवाई है,देख आना।माँ को भी साथ ले जाना।"


"देखिए कमल,माँ भाभी के साथ रहती हैं।मंदिर प्रशासन वालों ने उन्हें भी मैसेज किया होगा क्या पता वह भाभी के साथ जाएंँ!बेशक कुर्सी आपने लगवाई है पर मुझे अच्छा नहीं लगता ऐसा दिखावा।"


इतने में नीचे से माँ ने आवाज लगा साथ चलने को कहा।शायद भाभी के लिए कुर्सी का कोई महत्त्व नहीं था।


"हाँ ,माँ...."कह कावेरी चल दी सासू माँ के साथ मंदिर।वहाँ पहुँच कुर्सी देखी तो पापा का नाम देख वो सुबक पड़ीं। बोलीं,"ऐसे ही एक कुर्सी में वो मंदिर में आकर बैठा करते थे।सब इतना महत्त्व देते थे कि दूर से आता देख जगह से हट जाते कहते,"माथुर जी आ गए।लीजिए आपकी कुर्सी"और वो राजा विक्रमादित्य के सिंहासन की तरह उसपर विराजमान हो गर्व महसूस करते।सब बड़े-बूढ़ों की मंडली यहीं जमा करती।कुर्सी से तो इंसान की पहचान होती है।"


कावेरी मूक बनी सुनती रही।कुछ बोलती उससे पहले माँ कुर्सी पर बैठ बोलीं,"ले खींच दे एक फोटो और जहाँ सब देखते हैं ना वहाँ डाल देना।"


कुर्सी पर बैठ खुदको बड़ा मजबूत महसूस कर रही थीं।बहुत देर तक कुर्सी पर बैठी रहीं और न जाने क्या-क्या किस्से सुनाती रहीं।इससे पहले कावेरी की सासू माँ से इतनी बात कभी नहीं हुई थी।

अब वो अक्सर पार्क जातीं और घंटो उस कुर्सी में बैठ बिता आतीं।आज उनकी नजर माथुर आंटी पर पड़ गई।अचानक कावेरी का पार्क जाना हुआ।देखा तो माँ आंटी से बात कर दूसरी कुर्सी पर चुपचाप बैठीं थीं।


"माँ आज आप इस तरफ!"तो मुस्कुराई।लग रहा था जैसे बहुत अंदर तक सोच में डूबी हैं।


"हाँ बेटा देखो ना मेरे हटते ही वहाँ बच्चे आकर बैठ गए। मेरा पोता भी है बड़े गर्व से सबको दिखा रहा था,मेरे दादाजी की कुर्सी है।आज खुदके बैठने से ज्यादा मुझे वहाँ औरों को बैठा देख अच्छा लगा।ये कुर्सी का मोह बड़ा बुरा है बेटा।माथुर जी चले गए,भाभीजी उसी कुर्सी में बैठी रहती हैं।मैं नहीं चाहती मेरी जगह कुर्सी तक सीमित हो जाए।"


अपने मन की इतनी गहरी बात चंद शब्दों में कह माँ चली गई और कावेरी....उनके लड़खड़ाते कदमों को, बड़ी मजबूती से संभलते हुए आगे बढ़ते देखती रही।सच ही तो कह रही थीं माँ क्यों एक कुर्सी तक सीमित रहेंगी?उन्होंने अपनी कुर्सी बच्चों के लिए छोड़ दी।सचमुच जब अपने विचार इतने बड़े रखेंगी तो निश्चित रूप से बिना कुर्सी के भी राज करेंगी।


घर त्याग-बलिदान से चलते हैं।किसी एक घिसी-पिटी लीक पर अड़े रहने से रिश्तों में खींचातानी शुरू हो जाती है। बड़प्पन दिखा हर छोटे को प्रेम से अपना बनाया जा सकता है।समय रहते इंसान को सोच बदलनी चाहिए और नए विचारों का भी सम्मान करना चाहिए जिससे वैचारिक मतभेद पैदा ना हो और आपस में भी रिश्तों में सम्मान बना रहे।


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