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इंतज़ार

इंतज़ार

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शाम गहरी हो चुकी थी। सबकी देहरियों पर दिये जल रहे थे। नन्हे-नन्हे जगमगाते दीये मानों अंधेरे को चुनौती दे रहे हों।

रागिनी ने उठकर अपनी देहरी का दिया बुझाया और घर के भीतर चली आयी। उस दिये के साथ-साथ उसके मन का दिया भी आज एक बार फिर बुझ गया।

ना जाने कितने बरस बीत चुके थे ऐसे ही दिया जलाते-बुझाते "सुहास" का इंतजार करते।

"सुहास" रागिनी की मोहब्बत, जिसके साथ रागिनी के साँसों की डोर बंधी थी।

हर रात वो इसी आस के साथ काट देती की अगली सुबह सुहास जरूर आएगा।

उधर बेचारा सुहास एक दुर्घटना में अपना मानसिक संतुलन खोने के बाद पागलखाने की दीवारों पर बस रागिनी का नाम लिखता रहता, उसी को पुकारता रहता। वहां कोई नहीं जानता था उसका नाम-पता।

दोनों के दिल बस एक-दूजे के इंतज़ार में धड़क रहे थे, रोज उम्मीदों का दिया जला-बुझा रहे थे।

संयोग से एक दिन एक पत्रकार जय अपने अखबार के लिए एक लेख की सामग्री जुटाने पागलखाने गया।

जय की नज़र दीवारों पर सुहास द्वारा लिखे नाम पर गयी।

ना जाने जय के दिल में उस अंजान पागल के लिए कैसा स्नेह जाग उठा कि उसने सुहास की तस्वीर के साथ उस नाम को अपने अखबार में प्रकाशित कर दिया, इस उम्मीद पर की शायद सुहास का इंतजार, उसकी पुकार, उसकी मोहब्बत तक पहुंच जाए।

एक महीने तक जब कहीं से कोई जवाब नहीं आया तो जय भी निराश हो गया।

अचानक ही एक दिन एक स्त्री बदहवास हालत में अखबार का टुकड़ा लिए जय के दफ्तर पहुँची। उस स्त्री को देखते ही जय समझ गया कि ये रागिनी है जिसे वो तलाश रहा था।

जय रागिनी को लेकर तुरंत पागलखाने गया।

रागिनी को देखते ही सुहास दौड़कर उससे लिपट गया। दोनों एक-दूसरे की बाँहों में सिमटे हुए आँसूओं से इंतज़ार की इबारत को मिटाकर मोहब्बत की एक नई इबारत लिख रहे थे।

पागलखाने के अधीक्षक ने नम आँखों से जय से कहा- आज आपने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ लेख लिखा है।

जय भी अपनी आँखों की नमी पोंछकर मुस्कुरा उठा इस इंतज़ार की खूबसूरत समाप्ति पर।


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