पेन्डिंग ज़िंदगी
पेन्डिंग ज़िंदगी
आज पेंन्डिंग पोस्ट देखकर याद आया
ओह लाईफ़ भी तो पड़ी है पेंन्डिंग,
समय कम ओर जीना बहुत है..!
काट लिए अनमोल लम्हें
ज़िंदगी की चुनौतियों का जवाब देते..!
बची खुची बिता लें चलो हस्ती को सजाने में,
बिखरे लम्हों को थोड़ा समेटकर
देखा बस इतने कम ?
उफ्फ़ कैसे पूरे होंगे वो सारे सपने
क्या खरीद पाऊँगी इतने कम लम्हों में
ज़िंदगी से इतने सारे सपने..!
कहीं चीर निद्रा में ही ना सो जाऊँ
ना अब नहीं सोना
आज ही तो ज़िंदगी की सुबह हुई है,
कितना सामान बाँधना है
आख़री सफ़र को आसान करने..!
आज अचानक पेन्डिंग
लम्हे कैसे याद आ गये
जो लम्हें जिये वो क्या थे ?
अपनों पर कुर्बान करते,..!
किसी ने कभी नहीं कहा
तू अपने हिस्से के लम्हों को जी ले,
क्यूँ किसी ने याद नहीं दिलाए,
सब मेरी ऊँगली थामें आगे बढ़ते रहे
मैं तो आज भी सीढ़ी ही बनी रही..!
क्या पुछूँ मेरे अपनों को कौन सीढ़ी बनेगा
मेरी अंतिम सफ़र तक आसानी से बढ़ने में ?
ओह बहुत दूर निकल गये सब
अब वहाँ तक तो मेरी आवाज़ कैसे पहूँचेगी,
वैसे स्त्री को कहाँ कोई शौक़
बस किरदार निभाने ही जन्म लेती है..!
ना ..आई जब इस दुनिया में
तब कौन साथ था और जाऊँगी तब भी कौन होगा,
स्त्री को कहाँ कोई शौक़
किरदार निभाने ही जन्म लेती है..!
चलो निकलती हूँ एक नये सफ़र पर
जीने हैं कुछ लम्हें खुद की खातिर,
माँगूँगी चार कंधों की सीढ़ी वक्त आने पर,
तब बहुत सी सीढ़ीयाँ आगे आएगी,
सब कहेंगे मेरे कंधे पे चढ़कर जाओ
हाँ वो मेरा हक़ पेंन्डिंग रहा सब पर।।