वो
वो
बड़े-बड़े सपने, बड़ी-बड़ी आशाएँ,
बड़ा बनने की चाहत में बड़ा हुआ,
परिश्रमी था, दृढ़-निश्चयी,
सफ़र मेरा ठीक ही शुरू हुआ।
पर रास्ते में,
ना जाने कब मैं मंजिल भटक गया,
सोच वही थी, सपने वही थे,
पर अब मंजिल जैसे भूल गया,
वो आई, परछाई बनी,
सब कुछ लुटा बैठा,
सब कुछ मिटा बैठा,
उसे अपनी जिंदगी बना बैठा।
जन्नत का अहसास हुआ,
उसके स्पर्श से मुझमें नव जीवन संचार हुआ,
वो निशा, निशा ही लेकर आई थी,
आखिर जग में परछाई किसने पायी थी।
जिंदगी जैसे दूर हुई,
साँसे भी बोझ हुईं,
अब मिथ्या मस्तिष्क से दूर हुई,
वक्त गया, असह्य पीड़ा कम न हुई।
मैं फिर जागा,
मुझे फिर स्वयं का अहसास हुआ,
बड़े-बड़े सपनों के लिए,
बड़े-बड़े कार्यो का आभास हुआ।
फिर ऊर्जा संचित की मैंने,
फिर लक्ष्य को साधा मैंने,
फिर महान विचारों को पाला मैंने,
फिर अपने पथ को पाया मैंने।
पर अब भी,
हर सोच में,
हर विचार में,
वो अब भी शामिल है,
क्यूँ मुझे ऐसा लगा,
मेरा तो वही साहिल है।
वो फिर आएगी,
मेरी मंजिल तक,
मेरा साथ निभाएगी,
कुछ भी हो,
मेरी परछाई मेरे साथ हो जाएगी।
सपना है, मेरी कल्पना है ये,
शायद पूरी हो जाएगी,
इंतजार में उसके, मेरी,
मंजिल मुझे मिल जाएगी।