आख़िर क्यूँ
आख़िर क्यूँ
घटाटोप बादलों से घिरी
उदास सी एक टीस भरी शाम
बहुत कुछ याद दिला गई
काली घटा कुछ तुमसी फितरत सी
बस गरजकर बिन बरसे ही तुनक गई
उस शाम के गहरे साये तले
छुपा हुआ था कुछ दिल में दबे
आँखें फूट पड़ी है काश एक बस्ती भी
बह जाए सैलाब में यादों की
उस दिन एक सूरज ने साथ छोड़ा था
दिन का रात में ढ़लकर
एक दिन डूबा मेरा साया मुँह मोड़ गया
आज भी महक रोती है हथेलियों से मली
एक ओर हथेली की याद में
जर्द रात के अँधेरे बहाकर ले गए
वजूद मेरा याद की तमस में घेरे
क्यूँ होती है शाम खा जाती है पूरे के पूरे
दिन के उजियारे लम्हें तमाम
क्यूँ कोई सूरज ढ़लता है क्यूँ रात होती है
आख़िर क्यूँ ?