नदी के दो किनारे
नदी के दो किनारे
तुम कहते हो न
हम नदी के
दो किनारों की तरह हैं,
हमेशा साथ-साथ
चलते तो हैं
पर मिलते कभी नहीं,
काश ! कभी कहीं
कोई रास्ता निकल आता,
पर तुम कभी ये
क्यों नहीं सोचते की
हमारे बीच नदी की
मौज़ तो है
जो तुम्हे छु कर
मुझ तक
और मुझे छु कर
तुम तक पहुँच ही जाती है
और हमेशा ये क्रम
चलता रहता है,
फिर क्या हम
महज़ दो अलग-अलग किनारे हुए।