शर्मिन्दग़ी कहाँ है
शर्मिन्दग़ी कहाँ है
देखे है निग़ाह-ए-हसरत से साग़र मुझे
इन दिनों वो मेरी तिशना-लबी कहाँ है
नज़रें कई रोज़ से ख़ूँचकाँ न हुईं
जाने निहाँ वो दीद-ए-हज़ीं कहाँ है
लिख आया संग-ए-लहद पे अपना नाम
"शौक़" तेरी हसरत-ए-ज़िन्दग़ी कहाँ है
मेरे क़त्ल पे पशेमाँ हो वो क़ातिल
अपने ख़ून को हासिल, ये ग़र्मी कहाँ है
नज़रों ने मेरा ग़म-ए-आरज़ू देखा
ढूंढें हैं कि बयान-ए-ख़ुदबी कहाँ है
फिर उरियाँ है नंग-ए-वजूद दहर में
ऐ दिल तेरा जामा-ए-काग़ज़ी कहाँ है
नज़र आता नहीं दैर-ओ-क़लीसे में मैं
जाने मेरा शौक़-ए-बुतपरस्ती कहाँ है
मैं हूँ, मेरी नाश है ज़ामिन तेरे सितम के
पर तेरी नज़र में शर्मिन्दग़ी कहाँ है