अधूरे ख्वाब
अधूरे ख्वाब
मैं रातों में उठ-उठ के,
अधूरे ख्वाब बुनती हूँ !
अकेले ही मैं रोती और,
अकेले मुस्कराती हूँ !
मैं जद्दोजहद में अक्सर,
खुद से रूठ जाती हूँ !
मगर मुझको मनाने अब,
यहाँ कोई नहीं आता !
अंधेरी रात के छाये में,
सिमट कर मान जाती हूँ !
अकेली रातों में उठ-उठ के,
अधूरे ख्वाब बुनती हूँ !
तेरी यादों में लिपट कर,
जब ये रात ढलती हैं !
सुबह उठकर मैं फिर,
रात का इंतजार करती हूँ !
अकेले ही मैं रोती और,
अकेले मुस्कराती हूँ !
मैं अंधेरी रातों से अक्सर,
तेरी अधूरी बात कहती हूँ !
तेरी बातों में खो कर,
मैं सारा अम्बर घूम आती हूँ !
वो तेरी बाते नशीली हैं,
मैं चक कर झूम जाती हूँ !
मैं रातों में उठ-उठ के,
अधूरे ख्वाब बुनती हूँ ।