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मोह जाल

मोह जाल

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देख कर निष्प्राण देह,

मन हुआ व्याकुल बड़ा।

अमिट सत्य मुझको चिढ़ाता,

सामने था फिर खड़ा।


जोड़ ले तू जितनी दौलत,

महल, गाड़ी, मोटरें।

फूटना तो एक दिन है,

तेरा मिट्टी का घड़ा।


राम नाम सत्य कह,

ले जा रहे थे देह को।

और मेरा हृदय भी,

वैराग्य से पूरा भरा।


किस लिये ये मोह, ये झगड़े,

ये संचय व्यर्थ का ?

प्राण क्या निकले कि,

सब राह जाएगा यों ही धरा।


कर ले कुछ नेकी,भजन-

कर राम का उद्धार को।

सोचता में जा रहा था,

यों विरक्ति से भरा।


धीमे-धीमे जल रही थी,

देह अग्निताप से।

मन ही मन संकल्प कितने,

ले रहा था मैं खड़ा। 


पंच तत्वों में विलय अब,

हो चुका था देह का।

गंगा में डुबकी लगा कर,

मैं भी घर को चल पड़ा।


एक धक्के से गिरा..

उठ कर जो समझा माजरा।

पकड़ो-पकड़ो हाय

कितनी मेहनत से मैनें जोड़ी थी।


लूट कर वो चोर मेरी,

गाढ़ी कमाई ले गया।

बावला सा चीखता-

चिल्लता मैं दौड़ता गया !


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