वक़्त
वक़्त
जब मैं इस जग में आया था,
रोशन दिल में उजाला था,
तब तक कितना नाजुक था,
पड़ा न मुसीबत से पाला था।
ममतामयी आँचल ने जीना सिखलाया था,
मना-मनाकर चंचल मन बहलाया था,
इन पैरों पर तब चलना आया था,
जब ममतामयी स्पर्शो ने हाथ पकड़ उठाया था।
फिर कुछ बड़ा हो गया,
तब कुछ होशियार हो गया,
फिर स्कूल जाने लगा,
तब कुछ समझदार हो गया।
कलम को पकड़ा तो चलाता गया,
धर्म यही अपना निभाता गया,
नरम बनकर जीवन बनाता गया,
चरम भुलाकर जाने कहाँ जाता गया।
आज कहाँ पहुँच गया रे !
आज क्या भटक गया रे !
फिर से उसी बचपन में जाना है,
जाने क्या रस है उसमें उसे पाना है।
उस वक्त मैं नाजुक था,
आज मैं स्ट्रांग हूँ,
पर तब मैं खुश रहता था,
आज मैं निराश सा हूँ...
तब और अब का यही-वही
कल निकल गया है.,
न मैं बदला 'कमल' न तुम
'वक़्त ' बदल गया है।।