कहाँ गए वह पुराने दिन...
कहाँ गए वह पुराने दिन...
बातें जब 90's शताब्दी की हो,
और रेडियो या ग्रामोफ़ोन के चर्चे न हो,
ये बात तो वही हुई न बारिश हुई मगर बारिश के एहसास नहीं।
न था सिनेमा हॉल, न था मल्टीपलेक्स पिक्चर,
न था फ़ोन और न ही था कोई टीवी या लैपटॉप,
बस कुछ था तो रेडियो में विवध भारती की कार्यक्रम और उसे जीते हुए हम।
तब कैमरा था,
मगर आज कल के तरह नये अद्यतन कैमरे नहीं,
फिर भी बात तो एक थी प्यारी -प्यारी यादों को समेटकर उसमें रखना।
न भीड़ था, न ही कोई व्यस्त था,
न ऊंच -नीच कहने वाली समाज थी और न ही अकेलापन था,
कुछ था तो वह है अपनापन, एक दूसरे के लिए सिर्फ़ प्यार,
एकता और साथ में रहने वाले तब हम सब।
अभी भी याद है मुझे जब दादा जी के स्कूटर के पीछे बैठकर घुमा करते थे, टाउन जाते थे,
लगता था किस नये ख्वाब के दुनिया में आ गए हम,
मेला लगने पर हाथ पकड़ कर चलना और भीड़ होने पर पापा के कंधे पर बैठकर मेला घूमना,
दुनिया का सबसे खूबसूरत एहसास में से एक है।
तब किताबों और चिट्ठी का ज़माना था,
पंख से स्याही से लिखना और अपने प्रिय को चिट्ठी भेजना,
वह दौर की बात ही कुछ और थी।
तभी न एयर कंडीशन हुआ करता था, न ही कूलर,
तब जमाना था, पेड़ के शीतल छाव में बैठ के गप्पे मारना या
हाथ पंखे से अपने आपको ठंडक पहुँचाना,
असुबिधा कितनी भी हो फिर भी एक जुट हो कर रहना।
लाइट तो रहती नहीं थी ज़्यादा फिर भी खेलने का जुनून सर पर हो,
गीली डंडा हो, क्रिकेट हो, कबड्डी हो या टायर से खेलना,
मज़ा तो तब दोस्तों के संग और खुली हवाओं में ही आता था।
तब 1 आने , 5 आने की कीमत आज कल के 10 रूपय के सम्मान है,
अब पैसों के लिए अपने आपको बेच देते हैं , घर से माँ -बाप को निकाल देते हैं ,
पैसे की कीमत समझते नहीं है,
और तब 1आने को देख बच्चे खुश हो जाया करते थे।
DD Bharti को बैठ देख सबका ज़माना था,
जब ब्लैक एंड वाइट टीवी पहले आया था,
गाँव में किसी एक घर में टीवी हो तो क्रिकेट का मैच वहीं सबका बैठ देखना।
एक कैसेट में दस गाने आ जाते थे,
टेप रिकॉर्डर बजते -बजते रुकना और पेंसिल लगते फिर चलना,
वह सुकून के पल कुछ और ही थे।
मालगाड़ी रेल आने पर उसके साथ-साथ दौड़ लगाना,
कितने सुहाने थे वह पल, हरियाली खेत और ताजी हवा में गुज़रता था हर एक पल,
बच्चे में थी मासूमियत और मस्ती से गुज़रता हर एक कल।
लाइट न होने पर लालटेन जलाकर पढ़ना, रास्ते पर स्ट्रीट लाइट के नीचे पढ़ना,
कितना भी दूर क्यों न हो विद्यालय चलकर जाना,
तब जीवन और तरक़्क़ी की अहमियत बहुत थी।
रात होने पर दादी की कहानियाँ सुनना,
और सुबह होते ही दादा जी के साथ अख़बार पढ़ना,
और माँ के हाथ की दाल चावल खाना और पापा के साथ साइकिल के पीछे सीट पर बैठ के घूमना,
वह दिन भी क्या दिन थे।
इन छोटे -छोटे, खट्टे -मीठे पलों को एक डिब्बे में बंद करके रखना,
और हर दिन एक -एक पल को निकाल के उन्हें जीना,
जैसे बंद जुगनू का डब्बा खोलने से बहार निकल जाना,
सच में ऐसा लगता है की मानो हम उन्हें फिर से जी रहे हैं, महसूस कर रहे हैं।