बचपन का सुहाना सफ़र
बचपन का सुहाना सफ़र
बचपन से कब दुनियादारी आ गयी,
उसका पता ही नहीं चला।
स्याही के डब्बे से कब पेन आ गया,
उसका पता ही नहीं चला।
गालियारे और लुका छुपी से कब
चार दीवारी और झूठे ज़माने में आ गयी,
उसका पता ही नहीं चला।
दोस्त तो इतने सारे थे,
मगर सब कब बदल गए इसका पता ही नहीं चला।
खिलोने से कब दिल टूटने लग गए,
ये प्यार का सफ़र कब बिखरता गया
उसका पता ही नहीं चला।
कब मुस्कुराहट निराशा,
परेशानी और कुंठा में तब्दील हो गयी,
इसका पता ही नहीं चला।
कब असलियत में रहने वाले लोग
औपचारिकता दिखाने लगे,
उसका पता ही नहीं चला।
कब रेडियो से फ़ोन की मिलावट की ज़िंदगी आ गयी,
इसका पता ही नहीं चला।
कब बचपन कहीं छुप गया इस प्रौढ़ता भरी अवस्था में,
इसका पता ही नहीं चला।
दिल कहता है, और बड़ा नहीं होना मगर
नियति ने बहुत कुछ समझा दिया,
और इसका पता भी नहीं चला।
ज़िंदगी सोचकर नहीं बचपन के तरह खुलके जीना है,
ये मुझे मेरे बचपन ने सिखाया है मगर कब तजुर्बा इतनी हुई कि
कम उम्र में भी बड़ा बनना पड़ा इसका पता ही नहीं चला।
ख़त के ज़माने से लेकर कब वाट्सअप चैटिंग पर आ गए,
इसका पता ही नहीं चला।
पेड़ लगाने से लेकर कब पेड़ काटकर उसमें
इमरातें बनाने की ज़रुरत आ गयी,
इसका पता ही नहीं चला।
कब जल और जीब बचाओ से लेकर जल को गन्दा
और जीब पर बेरेहमी से अत्याचार होने लगा,
इसका पता ही नहीं चला।
कब बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे लगाने से लेकर
अपने फायदे के लिए एक लड़की पर
अत्याचार करना कब मर्दानगी बन गया,
इसका पता न चला।
