माँ
माँ
अल्हड़ता की सीढ़ियाँ चढ़ कर,
जाने कब बड़ी हो जाती हैं बेटियाँ,
अपने-अपने घरों से एक दिन,
पराये घर चली जाती है बेटियाँ।
बड़ी शान से खिलखिलाते, शर्माते,
शुरू होता है नया संसार,
जिंदगी के हमसफ़र के साथ,
कदम दर कदम मिलाकर चलते रहना,
कभी लजाते-मुस्काते तो कभी अनबन,
दिन-महीने-साल बिताना।
नयी खुशी के आने की आहट,
जाने कब-कैसे एक लड़की से,
पत्नी और कब मांँ बन जाती है ?
एक लड़की इतनी जल्दी,
खुद को कैसे बदल देती है ?
कहने को तो वो वक्त,
सिर्फ नौ महीने का होता है,
मगर हकीक़त में,
हर दिन एक नयी तरंग होती है,
शरीर में, विचार में, मन में,
आने वाले कल की उमंग होती है।
हर कदम का भान,
पल-पल का ध्यान,
ईश्वर के रचाये विश्व में,
एक माँ ही रचती है अपना संसार।
असहनीय वेदना सह कर भी,
चेहरे पर मुस्कान,
किलकारी उस गूंजती आवाज़,
सुनने को आतुर वो क्षण,
पहला स्पर्श पाते ही,
स्पंदित होता तन-मन।
एक मांँ ही समझती है,
एक माँ होना
ना रातों का सोना,
ना दिन का चैन,
ना अपनी होश,
ना दुनिया की परवाह,
जैसे एक स्पर्धा में,
दौड़ती है वो।
एक-एक पल,
एक-एक दिन,
कैसे गुजारती है वो,
सीने-से लगाए,
आँचल में छुपाए,
मौसमों और दुनिया की,
नज़रों से बचा कर,
कैसे पालती है वो।
एक मांँ ही समझती है,
एक माँ होना,
सुलाना, उठाना,
बिठाना, सिखाना,
खुद से ज्यादा,
अपनी संतान पर,
अपना सर्वस्व,
उड़ेलती है वो।
अपने आंगन के,
फूलों-सा सहेजती है वो,
स्नेह और परिपक्वता से स्वनिर्मित,
संसार को सँवारती है वो,
एक मांँ ही समझती है,
अपनी संतान को कैसे पालती है वो।