नारी के रुप अनेक
नारी के रुप अनेक
राधा कान्हा का प्रेम अमर है
रुक्मणी का न कोई ज़िक्र है
राम बने मर्यादा पुरुषोत्तम
अग्नि परीक्षा सीता का धर्म
लक्ष्मण समान भाई न कोई
उर्मिला एकाकी रह कर रोई
बुद्ध गृह त्याग बन गए महात्मा
विवश यशोधरा थी वह एक माँ
नारी के इन सब रूपों की
पीड़ा को न किसी ने जाना
अग्नि परीक्षा से होकर गुज़री
सीता का दर्द रहा अनजाना
कहीं अकेली बनी उर्मिला
वह परित्यक्ता जैसी सोई
माँ की ममता से विवश कहीं
यशोधरा बन कर है वह रोई
कहीं रुक्मणी बनी व्यथा
अश्रु में घोल कर पीती है
हृदय में अपनी पीड़ा समेटे
नारी कितने रूपों में जीती है