मैं गलती कहां कर गई
मैं गलती कहां कर गई
शाम नहीं धूप सुबह की थी
दस्तक देती जिंदगी की थी
फिर मेरे लिए सुबह ये
अंधेरा क्यों ले आई?
अभी अभी तो जिंदगी ने आंखें खोली थी
कि मौत सुलाने चली आई।
मैं मिट्टी से बनी
मिट्टी में ही जा सोंई
इस मिट्टी पर मेरी
बर्बादी की दास्तान लिखी गई।
मैं गलती कहां कर गई
मैं गलती कहां कर गई,
मैं यह समझ ना पाई
मैं यह समझ ना पाई।।
मैं तो अकेली गई न थी
राहे भी अनजानी न थी
खेत खलिहान से था नाता पुराना।
क्या इस रिश्ते इस नाते को
इन खलिहानों में जल जाना था ?
पत्ते-पत्ते से थी पहचान
अपना निशान तक मिट जाना था
समझ मैं पाती नहीं
गलती कहां मैं कर गई
गलती कहां मैं कर गई ?
बहन कह कर पुकारा था उसने
भरोसा उसका जो थामा था मैंने
टूटा भरोसा ,टूटी मै
कतरा कतरा दर्द से भींग रहा था
जख्म गहरा कहां ज़्यादा था ?
तन से रिसता खून
या मन का घाव अधिक था?
तय कर पाना यह मुमकिन न था
सांस- सांस में जहर उतर रहा था।
था मेरा कसूर क्या
मैंने तब भी जाना न था
जो सजा पाई मैंने
गुनाह ऐसा कौन सा मेरे नाम लिखा था ?
थी मेरी गलती कहां
मैं अब भी ना समझ पाई।
रिश्ता तो ये अपना था
तन पर कपड़ा पूरा था।
घर की चारदीवारी में कौन भला पराया था?
वहां भी मैं छली गई
सम्मान घर का ताबूत बना
टूटा मान मेरा दफन हुआ।
ना शोक कोई, ना आवाज
इस दर्द की यही तो है खास बात।
फिर भी बात मेरी समझ में ना आई
गलती कहां मैं कर गई।
दे कर मुझे दोष सभी चले जाते हैं
सवालों के नश्तर चुभाते जाते है।
जाना मुझे ना चाहिए था ,
साथ कोई क्यों न था
इतनी दूर कौन जाता है
ऐसे कपड़े कौन पहनता है ?
खुले जख्मों पर नमक का मरहम
नज़रों के बोलों से तार तार हुआ छलनी मन।
थी मेरी गलती कहां
मैं अब भी समझ ना पाई
इन सवालों के जवाब में
मैं गलती अपनी ना ढूंढ पाई।
मैं गलती कहां कर गई
मैं गलती कहां कर गई ?