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Saurabh Sood

Tragedy

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Saurabh Sood

Tragedy

पड़ा रहता मैं मदफ़न में

पड़ा रहता मैं मदफ़न में

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मुझको पाती ज़िन्दग़ी, लिपटा हुआ क़फ़न में

क्या बुरा था ग़र पड़ा रहता मैं मदफ़न में

जुम्बिश नहीं नज़र को, गोया मैं मर चुका हूँ

लहू सा कुछ दौड़ता है, अब भी मेरे बदन में

यूँ में कोई ज़र्रा-ए-ख़ाक़ तो नहीं ख़ुदाया

क्यों बेनियाज़ पड़ा रहूं, दहर-ए-गुलख़न में

जबकि तमाम जिस्म ही मेरा जल चुका नाक़िद

क्या ढूंढते हो दाग़, अब मेरे पैराहन में

जनाज़ा-ए-तमन्ना, मेरी बस्ती को आबाद करे है

जा पाता नहीं ख़्वाहिश को, अब अपने ज़हन में

मेरे क़त्ल का कुछ, क्या तुझको गुमां होता

बस कि इक क़तरा ख़ूँ था दीवारों के रौज़न में

तेरी ख़िरद से परे है, तू क्या अभी समझेगा

क्या तल्ख़ी है यार के मज़हक़-ए-ताअन में


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