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Jiya Prasad

Romance

2  

Jiya Prasad

Romance

ब्रेक-अप के बाद पेड़ लगाओ

ब्रेक-अप के बाद पेड़ लगाओ

2 mins
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ज़िंदगी अपनी फिक्स थी

थोड़ी सी डिब्बे में 

तो कुछ बक्से में 

 रंग भी ज़रूरी ज़िंदगी के संस्कार हैं सो 

ज़रा सा हल्दी के डिब्बे में भी रख छोड़े थे

 

 

अपने दिन को पकाती थी 

गैस के बर्नर की नीली आग पर

धूल की झाड़न में

तो कभी सर्दियों वाली धूप में

 

तो कभी कभी

दफ्तर के लंच की चपातियों में 

टेबल पर रखी फाइलों और रिपोर्टों में 

काम से ही अपनी क़रीबी थी

 

कुछ पसीने की बूंदें और महक 

देह में चिपकाकर 

 लौट आती शाम को 

कामकाजी के पैर लेकर

 

रात अपनी थी 

बिल्कुल अपनी 

मुझे अंधेरे से बैर नहीं था

मैंने रात का याराना कमाया था 

अपनी बनती थी 

 

अभी तक इश्क़ नहीं था 

हाँ, गुलमोहर के फूल ज़रूर थे 

पता नहीं क्यों मेरे मन के निकट हैं ये 

कुछ बजते गीत और साथ गुनगुनाते मेरे होंठ 

बस यही था रोमांस 

 

मैं ख़ुद को इतना चाहती थी 

कि कभी किसी के नाम के

फूल को भी किताब में जगह न दी 

पिचके फूल, क्योंकर 

मुहब्बत की निशानी हुए 

यही सोचती थी 

 

पर तुम आ गए, हाँ तुम 

सब जमा-पूंजी लूट ली

हलचल मचा दी 

अजब था कि इस लुटने में 

भी मज़ा आ रहा था

 

फिक्स डिपॉज़िट बिना ज़रूरत 

के टूट गया, ख़ुद-ब-ख़ुद 

पहली बार मालूम चला 

कि फिक्स रहने में नीरसता है 

हम यहाँ प्रेम के लिए हैं 

हाँ, शत प्रतिशत प्रेम के लिए 

 

पर मैं और तुम -हम’में तब्दील नहीं हो पाये 

धूप में सूखते हुए स्वेटर की दो बाजूएँ

ही बने रह गए

तुम ठहरे आज़ाद परिंदे

और मैं नन्ही सी चिड़िया

मुझे घोंसले की ही इच्छा ले डूबी

 

तुम आए और क्या ख़ूब लौट गए

जैसे तुम, तुम न हो 

कोई समंदर का 

ज्वार भाटा हो 

जितने प्रेम गीतों के साथ आए 

उतने ही सन्नाटे के साथ गए

 

अब सन्नाटा, चांटा मारता है 

हवा में दम निकलता है 

चंदनिया जैसे चिढ़ाती है

तारे मुंह बिचकाते हैं 

कल ही तो रात से झगड़ा हुआ 

अपना दोस्तना-याराना गया

 

ओह! मैं क्या करूँ 

मैंने तुम्हें दुबारा दस्तक़ दी 

उम्मीद के साथ दस्तक़ दी 

तुम्हारी आज़ादी के मद्देनज़र 

मैंने अपने को चिड़िया से कबूतरी 

बनाना चाहा, प्रेम की

 

... तुम नहीं माने 

 

अब फूल को किताबों के 

पन्नों में, मैं पिचकाती हूँ 

थोड़ा सा गम और एक हल्की हंसी 

बस पी जाती हूँ 

 

कुछ दिन पहले सोचा 

ऐसे बात नहीं बनेगी 

इंसान हूँ, सो कुछ तो करूंगी 

समाधि और मोक्ष की तमन्ना में खोट है 

इसलिए चंद पेड़ लगाने की सोच है 

 

क्या हुआ जो प्रेम कहीं पहुँच नहीं पाया

करने में ही कितना पाया

प्रेम का जो अब अवशेष बच गया है

वह अब गुलमोहर के रूप में

 

 

 

 

  उगाने का मन है 

 


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