हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Romance Classics

ययाति और देवयानी

ययाति और देवयानी

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ययाति की प्रसिद्धि दिन प्रतिदिन बढती जा रही थी । उसके सुव्यवस्थित प्रशासन से राजकोष में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी । सीमा पर शांति बनी हुई थी । प्रजा में संतोष व्याप्त था । अत: अपराध नगण्य थे । अपराधियों को कड़ा दंड दिया जाता था । जन कल्याण के कार्य किये जाने लगे थे और धार्मिक अनुष्ठान होने से देवता भी प्रसन्न होकर पर्याप्त वर्षा कर रहे थे जिससे भरपूर अन्नादि मिल रहे थे । कहीं कोई असंतोष नहीं था । प्रशासन पर ययाति का पूर्ण नियंत्रण था । 

राजमाता अशोक सुन्दरी के समक्ष बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई थी । ययाति के विवाह के लिए दसियों राजकुमारियों के प्रस्ताव आये हुए थे । वे निर्णय नहीं कर पा रही थीं कि किस राजकुमारी से ययाति का विवाह किया जाये ? वे भी चाहती थीं कि अब शीघ्र ही ययाति का विवाह संपन्न हो जाये तो फिर सयाति के विवाह की तैयारी प्रारंभ करें । सयाति के लिए तो महिष्मती की राजकुमारी मृदुला का चयन प्रदर्शन शाला में ही हो गया था । किन्तु ययाति को कोई राजकुमारी पसंद ही नहीं आ रही थी । प्रतिदिन दोनों माता और पुत्र में इसी बात को लेकर वाद विवाद होता था । ययाति के इस व्यवहार से अशोक सुन्दरी प्रसन्न नहीं थी । 


प्रागज्योतिषपुर से एक दूत आया हुआ था जो वहां की राजकुमारी सौदामनी के विवाह का प्रस्ताव लेकर आया था । उसने राजकुमारी सौदामनी के सौन्दर्य का छंद अलंकारों सहित विशद वर्णन किया था । उसने उसके गुणों का खूब बखान भी किया था और प्रागज्योतिषपुर के साथ हस्तिनापुर के पुराने प्रगाढ़ संबंधों का भी विशद उल्लेख किया था । राजमाता अशोक सुन्दरी को यह प्रस्ताव बहुत पसंद आया था । इस संबंध में रात्रिभोज के समय ययाति और अशोक सुन्दरी में समुचित विचार विमर्श भी हुआ किन्तु ययाति ने इस संबंध के लिए अपनी सहमति प्रदान नहीं की । उसे स्वयं नहीं पता था कि उसके हृदय में किसी राजकुमारी की आकृति घर क्यों नहीं कर रही थी ? सभी राजकुमारियां सौन्दर्य की आभा बिखेरने वाली रश्मि किरणें थीं पर इन रश्मि किरणों से ययाति के हृदय में प्रकाश नहीं हो रहा था । पता नहीं उसे किसकी तलाश थी ? संभवत: उसे किसी सतरंगी किरण का इंतजार था । 


ययाति का दरबारी कवि और उसका सखा राजशेखर दैत्य नगरी में हुए "साहित्य संगम" से लौटकर आया था । उसने दैत्य राजकुमारी शर्मिष्ठा और दैत्य गुरू शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी को उस साहित्य संगम में देखा था । उन दोनों के अनुपम सौन्दर्य ने राजशेखर को अत्यंत प्रभावित किया था । वह दोनों में निर्णय नहीं कर पा रहा था कि अधिक सुन्दर कौन है , शर्मिष्ठा या देवयानी ? देवयानी का वर्ण शरद पूर्णिमा की धवल चांदनी की तरह उज्जवल था तो शर्मिष्ठा के बदन का सौष्ठव अतुल्य था । देवयानी शुक्राचार्य एवं शची पुत्री जयंती की पुत्री थी । इस कारण देवयानी में अपनी मां की आभा और अपने पिता का तेज दोनों ही समाए हुए थे जिससे उसका व्यक्तित्व और निखर गया था । देवयानी सद्यजात कमल के सदृश थी जिसे छूने से उसके कुम्हलाने का भय सताता था । 


शर्मिष्ठा यद्यपि देवयानी से आयु में थोड़ी छोटी थी किन्तु शरीर सौष्ठव में वह देवयानी से कहीं अधिक कमनीय थी । उसका अंग विन्यास अद्भुत था । उसे देखने के पश्चात कुछ और देखने की कामना शेष नहीं रहती थी । उसके अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती थी । राजशेखर को शर्मिष्ठा में हस्तिनापुर की नई महारानी दिखाई दी इसलिए उसने वहां पर ययाति के रूप और गुणों का अद्भुत वर्णन किया था । उसे विश्वास था कि उसके द्वारा वर्णित ययाति का चित्र अवश्य ही शर्मिष्ठा के हृदय पटल पर अंकित होगा । 


जब वह ययाति के बारे में अपनी रचना पढ़ रहा था तब उसने एक नजर शर्मिष्ठा पर भी डाली थी । वह पूर्ण तन्मयता के साथ उसकी रचना सुन रही थी और अपने हृदय में उत्पन्न होने वाले प्रेम के गहरे भावों में उतर भी रही थी । उसके कमल नयन लाज से झुके हुए थे और चेहरे के भाव उसके हृदय की कथा कह रहे थे कि उसके हृदय में ययाति की मूर्ति प्रतिष्ठित हो चुकी है । अब तो ययाति के हृदय में शर्मिष्ठा के प्रति प्रीत का संचार कराना शेष रह गया है । राजशेखर ने तय कर लिया था कि वह ययाति के हृदय रूपी बंजर भूमि में शर्मिष्ठा के प्रेम का बीजारोपण करके ही रहेगा । 


सांयकाल का समय था । ययाति प्रमद वन में टहल रहे थे और प्रकृति का आनंद ले रहे थे । आसमान में काले काले मेघ घिर आये थे और वे जोर जोर से घड़घड़ा रहे थे जैसे वे कह रहे हों कि इस श्रावण मास में जब प्रकृति षोडश श्रंगार कर सबको अपनी ओर आकृष्ट कर रही है , हृदय में प्रेम का बीज बो रही है तब कोई युवा सम्राट एकाकी रहकर इस प्रकृति का अपमान कैसे कर सकता है ? प्रकृति तो प्रेम करना सिखाती है । रिमझिम बरसती बूंदें कामोद्दीपन का कार्य करती हैं । किन्तु ययाति पता नहीं किस मिट्टी के बने थे कि उन्हें अभी तक सौन्दर्य के आकर्षण ने अपने पाश में बांधा नहीं था । 


कवि राजशेखर ने प्रमद वन में ययाति को अकेले देखकर और उपयुक्त अवसर जानकर राजकुमारी शर्मिष्ठा के सौन्दर्य का वर्णन करना प्रारंभ कर दिया । उसने शर्मिष्ठा के एक एक अंग का उपमाओं सहित विशद वर्णन किया । शर्मिष्ठा का नख शिख वर्णन करते समय वह ययाति के चेहरे के भाव भी पढता जा रहा था । ययाति शर्मिष्ठा में रुचि ले रहा था । ययाति की आंखों में शर्मिष्ठा के लिए आकर्षण देखा जा सकता था । राजशेखर ययाति के पास आकर बोला "सम्राट, राजकुमारी शर्मिष्ठा "पारिजात" हैं जिन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा प्रत्येक राजा करता है । संभवत: उन्हें ईश्वर ने आपके लिए ही उत्पन्न किया है । एक बार चलकर उन्हें देख लेंगे तो फिर आप और कुछ देखना पसंद नहीं करेंगे" । 


ययाति को राजशेखर की बात उपयुक्त लगी और उसने शर्मिष्ठा को देखने की इच्छा प्रकट करते हुए राजशेखर को यात्रा की तैयारी करने के आदेश दे दिए । 



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