यह कैसी स्वतंत्रता
यह कैसी स्वतंत्रता


सुबह के शान्त क्षणों में सहज भाव से बैठी थी कि शांति में खलल पड़ गया। घर में काम करनेवाली मेड रोती हुई आई कि उसके मामा की लड़की को ससुरालवालों ने जला दिया, गाँव से खबर आई है। सुनकर हतप्रभ रह गई। अब भी जलाने की घटनाएँ हो रही हैं, कब तक चलेगा यह दुश्चक्र। अभी हाल में ही सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट पेपर में पढ़ा था कि माँबाप अपनी जिम्मेदारी समझें। घर टूटने से सबसे ज्यादा परेशान बच्चा होता है। सलाह दी गई थी कि शादी बचाने का प्रयत्न करें। पर शादी बचाने का तो क्या प्रयत्न होता, यहाँ तो अपनी पत्नी को ही जलाकर खत्म कर दिया गया। न रहेगा बाँस न बजेगी बांसुरी।
पता चला कि दो वर्ष पहले ही उसकी शादी हुई थी। अपने पीहर बहन की शादी में आई थी। एक दिन पहिले ही लौटकर ससुराल आई थी और आज खबर आई कि ससुराल वालों ने जला दिया। भाई रोता हुआ पहुँचा, पुलिस में सूचना दी। पुलिस नहीं आई, मुश्किल से एफ. आई. आर. दर्ज हुई। किधर जा रहा है हमारा समाज। पैसे का इतना लोभ हो गया कि मानव का कोई मूल्य नहीं रहा। मानव का मूल्य तो फिर भी हो, पर स्त्री को मानवी कहीं समझा जाता है? उसे दोयम दर्जा देकर भी मानव ने स्त्री के उत्पीड़न को उत्पीड़न नहीं समझा जाता। स्त्री के पीटने को हिंसा नहीं समझी जाती। एक स्त्री कितना भी अत्याचार सहकर इतने से ही खुश हो जाती है कि उसके पति ने उसे थप्पड़ नहीं मारा, जबकि और स्त्रियाँ रोज थप्पड़ खातीं हैं, पिटती हैं। पिटने को औरत की नियति समझ लिया गया है। 'ढोल गवाँर शूद्र पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी' यह हमारे तुलसी बाबा कह ही गए हैं।
पति सात वचन भरकर एक अनजान लड़की को अनजान परिवार से अपनी पत्नी बनाकर लाता है, भरणपोषण का जिम्मा लेता है। पर क्या वह सही मेँ भरणपोषण करता है? वह बदले में लड़की के माँबाप से भारी दहेज की माँग करता है, हर अवसर पर कुछ न कुछ माँग करता ही रहता है।
अभी एक गाँव के लड़के की शादी तय हुई। वह एकदम पढ़ा लिखा नहीं है, पर अपनी जगह इम्तिहान में किसी और को बैठाकर गाँव के स्कूल से किसी तरह हाईस्कूल का सर्टिफिकेट प्राप्त कर सरकारी नौकरी में चपरासी पद पर लग गया। उसके बाद शादी के लिए उसके रिश्ते आने लगे। एक दूसरे गाँव की बारहवीं पास लड़की पसन्द की। रिश्ता तय हुआ। लड़केवालों ने छह लाख रुपये नक़द और डेढ़ लाख रुपये के एक स्कूटर की माँग रखी। लड़कीवालों ने मान ली। फिर यह भी तय किया गया की बारात में डेढ़ सौ लोग आएँगे, और खाने में क्या खिलाया जायेगा। खाने का मेन्यू तय किया गया की दो मिठाई होंगी, पूरी होगी, रायता होगा, एक पनीर की सब्जी होगी, दो सब्जी और होंगी। लड़की वाले ने सब शर्ते मान लीं। आखिर लड़की की शादी करनी थी।
पर इतना पैसा लाएगा कहाँ से। पता चला की लड़की के पिता ने दस लाख रूपये का लोन लिया, वह एक स्कूल में मास्टर था। मास्टर की तनख्वाह कितनी होती है कि गृहस्थी भी मुश्किल से चलती है। लोन लेकर लड़की की शादी करेगा, लोन उतारते उतारते जिन्दगी बीत जाएगी। केवल रोकना में ही डेढ़ लाख दे रूपये चुका था। उस पर भी भविष्य ही बतायेगा की इतना देने के बाद लड़की सुखी रहेगी या नहीं।
एक और खातेपीते घर की घटना है। धूमधाम से खूब दान दहेज़ लेकर लड़के की शादी हुई। बहू घर में आई। सुन्दर थी, सब अच्छा कुछ था। खूब दहेज़ दिया गया था, पर बहू के मुँह पर हल्के चेचक के दाग थे। लड़की सुशील थी। आते ही सारा घर संभाल लिया। गर्भवती हुई, बच्चा पैदा करने सूतिका गृह में गई, पर वापिस नहीं आ सकी। उसने लड़की को जन्म दिया था। सौर गृह में उसकी देखभाल नहीं की गई। ससुराल में घर पर ही डिलीवरी हुई थी। आठ-दस दिन बाद पीहर में खबर पहुँची कि वह नहीं रही, पीहर वालों के आने से पहिले ही उसे जला भी दिया गया। आठ-दस दिन की नवजात बालिका बिना माँ के हो गई। श्मशान घाट पर ही लड़के का दूसरा रिश्ता तय हो गया और पहली पत्नी की मृत्यु के दो-तीन महीने के अंदर ही उसने दूसरी शादी कर ली। यह लड़की भी अमीर घराने की थी, खूब दहेज लेकर आई थी। समाज में थोड़ी कानाफूसी हुई फिर सब शान्त हो गया। किसी को इस घटना से कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
वह लड़की जो प्रसववेदना झेल रही थी, किसी से अपनी मन की दो बात भी नहीं कह सकी, वह क्या कहना चाहती थी, क्या भोगा था उसने, सब अपने साथ चुपचाप लेकर चली गई। जिस पति ने उसकी रक्षा का, भरण पोषण का भार लिया था, खूब दहेज लेकर शादी की थी, वह ही उसका काल हो गया, उसे ठीक से रख भी नहीं पाया, उसके साथ उसने जो क्रीड़ा की थी, उसका भी कुछ ख्याल नहीं किया। भावनात्मक जुड़ाव नहीं था। उसके मरने का भी गम नहीं था। दूसरी शादी से एक और नवयौवना सम्पूर्ण दहेज के साथ भोग के लिए मिली। उसे तो बिल्ली के भाग से झींका फूटा वाली बात हो गई।
एक अन्य घटना है। एक दिन बर्तन मलने वाली दाई ने बताया कि उसकी लड़की ससुराल से वापस आ गई, उसके दो-दो लड़कियाँ हो गयीं ,पर कोई बेटा नहीं हुआ, तो ससुराल वालों ने मारपीट कर घर से निकाल दिया। वह बेचारी रो रही थी कि घरों में बर्तन माँजकर किसी तरह अपने परिवार का पेट भरती है। किसी तरह पैसों का प्रबंध करके लड़की की शादी करी थी, वह भी घर लौट आई, साथ में दो बेटियाँ लेकर, कैसे सबका पेट भरेगी।
बाद में पता चला कि उसने व पड़ोसियों ने समझा बुझाकर लड़की को फिर उसकी ससुराल वापिस भेज दिया। उसको समझाया कि चुप होकर सहन करो, निबाह लो। लड़की लाचार थी, वापिस ससुराल चली गई। पता चला कि फिर कुछ दिन बाद वापिस भेज दी गई, इस बार उसका एक पैर तोड़कर, उसे इतनी जोर से लाठी से मारा गया कि उसके पैर की हड्डी टूट गई। साथ ही वह फिर दो तीन महीने की गर्भवती भी हो गई। अर्थात् पति ने उससे पुनः शारीरिक सम्बन्ध भी बनाया और मार पीटकर निकाल भी दिया। लड़की रोती हुई माँ के घर आ गई। ससुराल के दरवाजे बंद हो गए। बेसहारा कहाँ जाती। इलाज के भी पैसे नहीं थे। किसी तरह उसकी माँ ने कुछ प्रबंध किया और धीरे धीरे लड़की को अपने साथ साथ घरों में बर्तन माँजने के काम में ले जाने लगी। इतने पैसे नहीं, साथ ही शिक्षा नहीं, जानकारी भी नहीं कि कहाँ फ़रियाद करे। कहीं कोई सुनवाई भी नहीं, सहायता भी नहीं। उसे कचहरी जाने की सलाह दी गई और भरणपोषण भत्ता माँगने की सलाह दी गई। पर कचहरी में तारीख़ पर तारीख़ पड़ती हैं, हर तारीख़ पर पैसा खर्चा होता है, कुछ फायदा वहाँ भी नहीं। अपनी दुरवस्था को या दुर्भाग्य को गाली दो या कुछ भी करो, भुगतना स्वयं ही पड़ता है, कहीं से सहायता नहीं मिलती।
यह कैसा समाज है जहाँ नारी को सम्मान से जीने का हक नहीं। उसके घर से बाहर निकलने पर रोक, शिक्षा पर रोक, उसके नौकरी करने पर रोक। समाज में सारे बन्धन लड़कियों के लिए, उन्हें कोई सुविधा नहीं। सदियों पुरानी विचारधारा आज के युग में भी चली आ रही है कि स्त्रियों को स्वतंत्रता नहीं, उन्हें पराधीन ही रहना है। इतने कानून बन गए, इतनी प्रगति हो गई, पर समाज की स्त्रियों के बारे में दृष्टि नहीं बदली। जब तक पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक कुछ होना मुश्किल है। पिता अभी भी परिवार का मुखिया है, जब तक वह लड़कियों को शिक्षा देकर स्वाभिमानिनी नहीं बनायेगा तब तक कुछ नहीं बदलेगा। जब तक पिता लडकियों को बोझ समझता रहेगा तब तक उसका पति भी उसे बोझ समझेगा और स्त्रियों की दुर्दशा समाप्त होने का नाम नहीं लेगी।
ऊपर वर्णित इन चार लघु कथाओं से स्पष्ट है कि स्त्री की दशा में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं आया है, आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी, और इतने कानूनी सुधारों के बावजूद भी वह अभी भी प्रताड़ित हैं। स्त्री सदियों से दोयम दर्जे की नागरिक समझी जा रही है और प्रताड़ित होती आ रही है। जब तक सामाजिक चेतना नहीं बदलेगी, जागरूकता नहीं आएगी, स्त्रियों की दशा में सुधार आना मुश्किल है।
जब तक आधी आबादी दुःख में है तब तक स्वतंत्रता अधूरी है। स्त्री को अपनी स्वतंत्रता व विलक्षणता में पनपना चाहिए। स्त्रियों को भी शिक्षा, स्वतंत्रता व समान अधिकार एवं आदर सम्मान मिले, तभी असली स्वाधीनता का मिलना है।