वसुधैव कुटुंबकम्

वसुधैव कुटुंबकम्

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"माँ वसुधा माने!"

"पृथ्वी"

"और कुटुंबकम् माने"

"परिवार"

"फिर वसुधैव कुटुंबकम् माने"

"पूरी पृथ्वी एक परिवार के समान है !"

"वो कैसे!"

"कल मैदान मे खेलते हुए तुम्हारी और तुम्हारी चचेरी बहन रीमा की लड़ाई हो गई थी न! फिर मैंने और तुम्हारी चाची ने तुम दोनों की सुलह करवाई ।"

"हाँ फिर हम रात को शादी में भी तो साथ ही गए थे न!" "बिलकुल! हम लोग भले ही अलग अलग फ्लोर पर रहते हैं पर परिवार तो एक ही है न!"

"और पूरी पृथ्वी!"

"बेटा! पूरी पृथ्वी के लोगों के रंग रूप, रीति रिवाज भले ही अलग हो परंतु उनमें एक बात तो बिलकुल सेम होती है! वो है प्रेम की भावना !"

"प्रेम की भावना!"

"हाँ बेटा! तुम्हें याद है पिछ्ले बरस जब हम इटली घूमने गये थे और वहाँ अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई थी तो होटल के स्टाफ और अस्पताल के नर्स व डॉक्टरों ने हमारी कितनी मदद की थी ।"

"माँ ! दादी हमेशा कहती हैं कि इन्सान ही तो इन्सान की मदद करता है ।" "और यही इंसानियत ही तो पूरी पृथ्वी के लोंगो को आपस में जोड़ती है । तभी तो हमारे ग्रंथों में कहा गया है- वसुधैव कुटुंबकम्!"

"अब ये श्लोक ध्यान से सुनो और समझो -

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।

माने यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोग तो पूरी पृथ्वी को ही अपना परिवार मानते है।"

"थैंक्यू माँ! अब मैं अपने दोस्तों को भी ये बात समझाऊंगा!"



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