बिन फेरे हम तेरे
बिन फेरे हम तेरे
रेशमी घने कमर तक लहराते बाल, सफेद सलवार सूट पर ओढी खूबसूरत आसमानी चुनरी, चुनरी के दोनों किनारों पर लगा रेशमी गोटा, पैरों में छन छन बजती पायल
झील सी गहरी आंखें, किसी को भी मदहोश करने के लिये काफी है।
पढ़ा था सुना था और आज देख भी लिया - कश्मीर की कली ! धीरे से नाव में पैर धरती हुई जब वह नाव में बैठी तो बहती पुरवाई ने आसमानी चुनरी को यूँ लहराया मानो फिज़ा में रंगीनियाँ घुल गई हो मंद मंद बहती पवन मुस्करा उठी हो झील की लहरें भी मानो हिलोरें लेना भूल गई हो !
मै एकटक दूर जाती नाव को देखता रहा।
"अरे तुम तैयार नहीं हुए अभी तक ! कितनी आवाजें लगाई तुम्हें ! आज तो निशात बाग देखने जाना हैं न !" मिशू ने थोड़ी उंची आवाज में गुस्से से कहा।
"हाँ हाँ मुझे पता है, तुम लोग जाओ। मेरी तबियत कुछ ठीक नही लग रही। शरीर में कुछ हरारत सी महसूस हो रही है।"
"सबसे ज्यादा शोर तो तुमने ही मचाया हुआ था यहाँ आने के लिये और अब खुद ही इस शिकारे से चिपके बैठे रहते हो ! आखिर माजरा क्या है !"
"मिशु प्लीज यार ! आए एम नॉट फीलिंग वेल।"
तब तक बाकी सब दोस्त भी आ गये और सथ चलने के लिये जोर जबरदस्ती करने लगे। उफ्फ कितनी मुश्किल से पीछा छुड़वाया।
आज यहाँ दूसरा दिन था। दिल्ली से आते हुए कितना जोश था कश्मीर घूमने का। दो महीने पहले ही सारी बुकिंग करवा ली थी, शिकारा व होटल तक ऑनलाइन बुकिंग हो गए थे। डल लेक, सोनमर्ग, गुलमर्ग, निशात बाग, शालीमार बाग, चश्माशाही रात रात भर जागकर पूरी लिस्ट तैयार की थी टूरिस्ट प्लेसेस की।
कश्मीर पहुंचते ही डल लेक के शिकारे पर जब से उसे देखासब सुधबुध खो बैठा। न दोस्तों की नाराजगी याद रही न कश्मीर की खूबसूरत वादियां ! याद रही तो बस्स वो खूबसूरत झील सी गहरी आंखे और आसमानी चुनरी।
अगले दिन सुबह सवेरे ही बाहर आकर बैठ गया। फेरी वाले सामान बेचने के लिये आवाजें लगा रहे थे। नाश्ते का सामान, चूडियां, कानों के बुन्दे, मोतियों के हार, मांग टीका और जाने क्या क्या। उन सभी आवाजों से अनभिज्ञ मेरा पूरा ध्यान उसके शिकारे के छोटे से दरवाजे की ओर था।
इन्तज़ार की लंबी घड़ियां मसां मसां खत्म हुई और वो परी झुकते हुए उस छोटे से दरवाजे से अवतरित हुई। आज भी वही सफेद सलवार कमीज और चुनरी गुलाबी। गुलाबी रंग की चुनरी का गुलाबी शोख रंग उसके चेहरे को और भी नूरानी बना रहा था। स्वर्ग से उतरी कोई खूबसूरत अप्सरा दी लग रही थी वह आज ! दिल जैसे धडकना ही भूल गया, सांसे जैसे थम सी गईं। जब तक वह नाव में बैठी दिखती रही मेरी नजरें उसी पर चस्पां रहीं।
पहले उसे देखने की चाहत अब उसकी वपिसी का इंतजार ! ये इन्तज़ार की घड़ियाँ इत्ती लंबी क्यूं होती हैं।
दोस्तों की सुगबुगाहट फिर शुरु हो गई और मेरे बहाने भी। मुझ पर ताने कसते और सौ सौ उलाहने देते वे घूमने निकल पड़े और मैं। कल रात से कुछ न खाया था। मुहब्बत का खुमार इस कदर सिर पर चढ़ा था कि न खाने का होश था न पीने का। न जागता था न सोता। न होश था न हवास। अगर कुछ था तो बेख्याली और बेख्याली के गहरे समुद्र मे गोते लगाती मेरे साथ वो !
अचानक सामने नजर पड़ी। उसकी माँ तार पर कपड़े सूखने डाल रही थी और किशोरवय लड़का किताब हाथ में उठाए याद किया हुआ सबक माँ को सुना रहा था। जाने मन में क्या आया कि उस ओर चल दिया।
"जी ! कुछ चाहिए ! वे थोड़ी देर में आते ही होंगे।"
"जी बस्स एक कप चाय अगर हो सके तो !"
"चाय तो नहीं, कहवा जरूर मिल सकता है।"
"चलेगा !"
"अभी लाई। आप बैठिए।"
मैं उस किशोर लड़के से बातें करने लगा। सरल स्वभाव का प्यारा सा बच्चा !
" ये लो कहवा !"
"शुक्रिया !"
बहुत कुछ जानना चाह रहा था पर बात का सिरा कहाँ से पकडू !
अचानक ध्यान साईड पर रखी रंग बिरंगी चुनरियों की ओर खींच गया। इन्द्रधनुष से रंगो सी चुनरियां बैंगनी लाल पीली नीली हरी आसमानी !
"कितने खूबसूरत चटक रंग है इन चुनरियों के !"
बेसाख्ता मेरे मुँह से निकला।
"और जिंदगी इन चटक रंगों से कोसों दूर !"
जैसे किसी गहरे कुएं से आवाज़ आई हो।
"मतलब !"
किसी अनहोनी की आशंका से झुरझुरी सी दौड़ गई तन बदन में।
"उसने तो बस सफेद रंग को ही जीवन बना लिया है अब, बड़ी मुश्किल से सौ सौ कसमे दे ये चुनरियां ओढ़ने को मनाया मैनें और इसके बाबा ने !
"सफेद रंग !"
बदहवासी में मुँह से सिर्फ इतना ही निकला।
"14 फरवरी को जम्मू श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर भारतीय सुरक्षा कर्मियों को ले जाने वाले सी०आर०पी० एफ० के वाहनों के काफिले पर जो आत्मघाती हमला हुआ था और 45 सुरक्षा कर्मियों की जान गयी थी
उसी में इसका मंगेतर भी था !"
