कर्ज चुकता

कर्ज चुकता

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"सर ! बारह हजार रुपये एडवांस चाहिए।"

चपरासी रामचंद्र ने चाय का प्याला एकाउंटेंट की टेबल पर रखते हुए कहा।

"अभी पिछ्ले हफ्ते ही तो तीन हजार एडवांस लिये, इस हफ्ते दुबारा पूरी तन्ख्वाह तो ऐसे ही उड़ जाएगी तुम्हारी !"

एकाउंटेंट साहब त्योरियां चढ़ाते हुए बोले।

"सर पिछले हफ्ते तो बिटिया के एडमिशन का फॉर्म भरना था, इस हफ्ते फीस भरनी है !"

रामचंद्र की आंखों में सुनहरी चमक देख एकाउंटेंट साहब ने उँची आवाज़ में डांटा-

"तो अगला महीना फाँकों में काटोगे क्या ! बेटी के लिये अपनी तन्ख्वाह कौन ऐसे उड़ाता है भला !"

न न सर बेटी हो या बेटा ! हैं तो मेरे ही बच्चे न ! अगले महीने की चिंता रब करेगा।"

रामचंद्र के स्वर में निश्चिंतता थी।

"बेवकूफ कहीं का !" चाय का प्याला होंठो से लगाते हुए एकाउंटेंट साहब मन ही मन बुदबुदाये।

"महेश ! रामचंद्र को मेरे केबिन में भेज दो।"

अपने केबिन के शीशे से ये नजारा देख बड़े साहब ने एकाउंटेंट साहब को टेलीफोन पर कहा।

"जाओ बड़े साहब अंदर बुलाते हैं। अब वही सीधा करेंगे तुम्हें !"

एकाउंटेंट साहब की धूर्तता उनकी आंखों में उतर आई।

"नमस्ते साहब !"

बड़े साहब के केबिन में दाखिल होते हुए रामचंद्र ने घबराहट से कहा।

नमस्ते ! एडवांस चाहिए तुम्हें !"

बड़े साहब की रौबीली आवाज केबिन में गूँजी।

"जी ! बेटी की पढ़ाई के लिये साहब ! पढ़ने में उसकी बहुत रुचि है। बड़ी अफसर बनना चाहती है !"

रामचंद्र की आवाज़ लरजा गयी।

"हम्म !"

बड़े साहब विचारमग्न हो गए। कमरे में घोर सन्नाटा पसर गया।

"साहब ! एडवांस मिल जाता तो !"

हिम्मत कर रामचंद्र ने मानो जबरदस्ती शब्द मुँह से बाहर निकाले।

"ये लो !" दराज खोल बड़े साहब ने एक लिफाफा निकाला, उसमें रुपये रखे और लिफाफा रामचंद्र की ओर बढ़ा दिया।

"ये क्या है साहब !"

बेसाख़्ता मुँह से शब्द निकले।

"तुम्हारी बेटी की पढ़ाई का खर्चा ! अब तुम्हें किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं !"

"पर !"

गहरी चिंता की लकीरें मस्तक पर आ विराजमान हो गई। मन में सौ सौ प्रश्न कुलबुलाने लगे।

"क्या सोच रहे हो कि कैसे चुकाओगे ये कर्ज !"

अब रामचंद्र के मुँह से एक शब्द न फूटा ! जुबान तालू से चिपक गई हो जैसे।

"चिंता मत करो ! तुमने नहीं चुकाना ये कर्ज !"

बड़े साहब ने रहस्यमयी अंदाज में कहा तो रामचंद्र की रही सही हिम्मत भी जवाब दे गई।

जी में आया बोल दे- "साहब हम गरीब जरुर हैं पर बेगैरत नही।"

पर प्रत्यक्ष में कुछ न बोल पाया।

अचानक बड़े साहब की रौबीली आवाज से उसकी तंद्रा टूटी।

"बस अपनी बिटिया को मेरी तरफ से इतना कहना, जब पढ़ लिख कर काबिल बन जाए तो ऐसे ही किसी जरूरतमंद की मदद कर दे !

तब हो जाएगा तुम्हारा कर्ज चुकता !"


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