वो कौन थी? भाग : ५
वो कौन थी? भाग : ५




मौत का पंजा
हम सारी रात उस अनजान सड़क पर सफर करते हुए सुबह पाँच बजे उस लॉज जैसी लगने वाली ईमारत के सामने आ पहुँचे थे। वो उजाड़ सा लॉज काली नदी की रिज पर था जिसके ८०० मीटर नीचे काली नदी बह रही थी। लॉज का रिसेप्शन खाली था, लेकिन उसका की बोर्ड पर कमरा नंबर १५० बुक दिखाई दे रहा था।
"इसी रूम में होगा?" कहते हुए मिथ्या तेजी से कमर नंबर १५० तलाश करने लगी। कमरा दूसरे माले पर मिला, एक सुनसान कोने में बिलकुल अकेला। कमरा अंदर से लॉक था, मिथ्या ने दरवाजा नहीं खटखटाया उसकी जगह उसने तार के एक टुकड़े से १५ सेकंड में दरवाजा खोल दिया और रिवाल्वर हाथ में लेकर झटके से अंदर घुसी।
कमरे के अंदर बिस्तर पर उदित एक लड़की के साथ सोया हुआ था।
"बहुत मस्ती हो गयी, अब उठ जा।" मिथ्या चेतावनी भरे स्वर में बोली।
उदित और वो लड़की उछल कर बैठ गए और अपने कपड़ों की और लपके लेकिन मिथ्या ने साइलेंसर लगे रिवाल्वर से गोली चलाकर उन्हें ज्यूँ का त्यू स्थिर कर दिया।
"अबे तू इस नागिन को यहाँ लाया है? ये मुझे मार डालेगी, लेकिन बचेगा तू भी नहीं।" उदित मुझे देखकर तड़फ कर बोला।
"भाई मुझे……" मैंने उसे सच बताना चाहा।
खामोश अब तुम दोनों में से कोई भी बोला तो अभी मरेगा वो………समझ गए या समझाऊँ?" मिथ्या गुर्रा कर बोली।
उसकी गुर्राहट सुनकर मैं चुप हो गया। उदित घृणा के साथ मुझे देख रहा था और मैं हैरान-परेशान उस घड़ी को कोस रहा था जब मैं मिथ्या से मिला था और पैसे के लालच की वजह से या एडवेंचर की चाह में उसके साथ यहाँ चला आया था।
तभी मिथ्या ने अपने बैग से तीन हथकड़ियाँ निकाल कर मेरी तरफ फेंकी और बोली, "पहना दे ये हथकड़ियाँ इन दोनों को और खुद भी पहन ले।
जब तक मैंने उदित और उसके साथ की लड़की को हथकड़ियाँ पहनाई तब तक मिथ्या हम तीनों पर रिवाल्वर ताने रही, बाद में उसने इशारा करके मुझे हथकड़ी पहनने से रोक दिया, ये मेरे लिए आश्चर्य की बात थी।
उसके बाद मिथ्या ने अपने टूटे-फूटे सॅटॅलाइट फोन से एक सिग्नल भेजा। सिग्नल भेजने के ३० मिनट बाद हैलीकॉप्टर आने की आवाज गूँज उठी और ३० सेकण्ड्स में चार लंबे चौड़े गोरे आदमी कमरे में आ घुसे और उदित को दबोच लिया।
उन्होंने जबरदस्ती उसका लैपटॉप खुलवाया और दस मिनट तक उसमे लगे रहे और फिर उनमे से एक बोला, "वी गॉट द एस्पियोनेज ऑपरेशन लिस्ट व्हिच ही हैक्ड फॉर अस, बट ट्राइड तो डबल क्रॉस अस। फिनिश दैम नाउ। (हमें जासूसी के क्रियाकलापो की सूची मिल गयी है, जो इसने हमारे लिए चुराई थी, और बाद में हमें ही डबल क्रॉस करने की कोशिश की; अब इन्हें मार दो) उच्चारण का लहजा अमेरिकी था।
पिट-पिट की आवाज के साथ दो गोलिया मिथ्या के रिवॉल्वर से निकली और उदित और उस लड़की के सिरो की धजिया उड़ गयी।
मुझे पता था गोली लगने का अगला नंबर मेरा ही था, लेकिन मिथ्या के गोली चलाते ही मैंने दरवाजे की तरफ जोर की छलांग लगाई, मैं दरवाजा खोलकर तेजी से बाहर की तरफ भागा। मेरे पीछे मिथ्या दौड़ रही थी। मैं सीढ़ियाँ फलांगते हुए बहार आकर रिज की तरफ दौड़ा और सर में गोली लगने का इंतजार भी करने लगा। लेकिन मेरी पीठ में एक जोर की लात लगी और मैं रिज से नदी में गिरने लगा। मैं पीठ के बल नीचे गिर रहा था। रिज के ऊपर मिथ्या खड़ी थी उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी और उसकी चलाई गोलियां मेरे दायें-बाये से निकल रही थी। कुछ सेकंड बाद मैं नदी के पानी से टकराया और बेहोश हो गया।
वो कौन थी?
जब होश आयी तो मैं एक गंदे से कमरे में मैले कुचैले बिस्तर पर लेटा था। सर पर पट्टियां बंधी थी। सामने दीवार पर एक टीवी लगा था जिसमें कोई भद्दी सी फिल्म चल रही थी जिसे मेरे सिरहाने बैठा एक काला-कलूटा, मोटा आदमी देख रहा था।
"उठ गया तू, देख तू मुझे नदी में बहता मिला था; तेरी हालत बहुत ख़राब थी, तेरा सर फटा हुआ था, तेरा चेहरा कटा हुआ था। तेरी जेब से चालीस हजार निकले, जिनसे मैंने डॉक्टर बुला कर तेरा इलाज कराया। पूरे दो दिन बाद उठा है तू। तेरा सारा पैसा ख़त्म हो गया है, अब तू यहाँ से फूट ले।"
"मैं हूँ कहाँ? ये कौन सी जगह है? मैंने उससे पूछा।
"तू झबरा कसबे में है।"
"ये कहाँ हुआ?"
"लगता है चोट से तेरा दिमाग खराब हो गया है, ये क़स्बा हिंदुस्तान के मध्य में है।"
"एक चाय पिला सकता है?"
"हाँ, लेकिन चाय पी कर रफूचक्कर हो जाना। तू मुझे लफड़ेबाज़ लग रहा है; लेकिन मैं तेरे से बड़ा लफड़ेबाज़ हूँ।"
"ठीक है मेरे बाप।"
मैंने अपने सिरहाने रखा टीवी का रिमोट उठाया और न्यूज चैनल ढूंढने लगा। सभी चैनल पर या तो बाबा अपने प्रवचन दे रहे थे या सुन्दर लड़कियां सामान बेच रही थी। लेकिन एक चैनल पर खूंखार सा दिखने वाला एंकर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि-
“वो कौन थी?”
वो यमुना नगर से खून की नदियां बहाते हुए निकली, जहां उसने दो लोगों को शूट कर दिया, एक कार हाईवे पर उड़ा दी। देवदुर्ग में तीन पुलिस वालों को मार डाला। काली घाटी की एक लॉज में एक प्रेमी युगल को गोली से उड़ा कर कुछ विदेशियों के साथ हेलीकॉप्टर में बैठ कर फरार हो गयी, पता लगा है की हेलीकॉप्टर एक प्राइवेट ऐविएशन कम्पनी से फर्जी दस्तावेज दिखा कर भाड़े पर लिया गया था। उसके साथ एक गुमनाम लेखक भी था जिसे उसने मार कर काली नदी में फेंक दिया।
आखिर वो थी कौन? मरने वालों से उसका क्या ताल्लुक था? क्या वो कोई विदेशी जासूस थी, या कोई भाड़े की कातिल? इन सब सवालो का जवाब किसी के पास नहीं है। भारतीय खुफिया एजेंसिया इस गुत्थी को सुलझाने में लगी है। ये दोनों तस्वीर उस क़ातिल की और उस लेखक की है। ये कही भी नजर आये तो तुरंत हमारे इन नम्बरों पर सूचित करे।
तभी वो मोटा एक चीकट गिलास में चाय लेकर आ गया। चाय के दो घूँट भरकर मैंने गिलास वापिस रख दिया।
"अच्छी नहीं लगी, चल बहुत हो गया तेरा नाटक, अब यहाँ से दफा हो जा।" वो मोटा चेतावनी भरे अंदाज में बोला।
"क्या हुआ क्या तकलीफ है तुझे, तहजीब से बात करने में कुछ दिक्कत है तुझे?" मैं थोड़ा नाराजगी से बोला।
"मुझे पता था, तू कोई शरीफ आदमी नहीं है; लेकिन मेरे पास इलाज है तेरे जैसे आदमी का, अब या तो ख़ामोशी से चला जा नहीं तो..........." कहते हुए उसने अपने तहमद से एक लंबा सा छुरा निकाल कर हवा में गोल गोल घुमाया।
अबे तू आदमी है या घनचक्कर कहकर मैंने एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर रशीद किया। वो फिरकी की तरह घूम कर जमीन पर जा गिरा और फटी-फटी आँखों से मुझे देखने लगा।
"चल ला मेरा बचा पैसा निकाल।" मैंने उसे हुड़ककर कहा।
उसने अपनी मैली बनियान की चोर जेब से सौ-सौ के पंद्रह या बीस नोट निकाल कर मेरे हाथ पर रख दिए। मुझे पता था उसने किसी झोला छाप डॉक्टर से मेरी मरहम पट्टी कराई होगी और बाकी पैसा अपनी मस्ती के लिए उड़ा दिया होगा। जो भी हो उसने मेरी जान बचाई थी इसलिए उसे थप्पड़ मारने का अफ़सोस हुआ और उसे उठा कर माफ़ी मांगी।
"भाई तूने ही गुस्सा दिलाया मुझे, चल माफ़ कर दे, वैसे नाम क्या है तेरा?" मैंने विनम्रता से कहा।
वैसे मुझे आश्चर्य था कि मेरे जैसा दब्बू इंसान इतना दिलेर कब से हो गया जो उस रात उन लुटेरों से भिड़ गया था और आज इस मुस्टंडे को थप्पड़ मार बैठा था।
"झब्बन दादा।" उसने उखड़े लहजे में बताया।
"झब्बन दादा, एक शीशा मिलेगा मुझे?" मैंने विनम्रता बरक़रार रखते हुए कहा।
जो शीशा वो लेकर आया वो भी उस घर के और सामानों की तरह टूटा-फूटा था। लेकिन शीशे में एक अजनबी था। पिचका हुआ चेहरा, घनी दाढ़ी, गाल पर एक लंबा चीरे का जख्म। ये पुराना विजय नहीं था, ये कोई और ही था।
मैंने कुछ सोचकर १०० रूपये के दस नोट निकाल कर अपनी जेब में रखे और बाकी झब्बन दादा के हाथ पर रखते हुए कहा, "झब्बन दादा जान बचाने का शुक्रिया, अब मैं चलता हूँ।”
मैंने आखिरी बार उस मुस्टण्डे को देखा और उसके घर से बाहर निकल आया।
मिथ्या का मुस्कराता चेहरा मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया था। आखिर वो थी कौन? क्या मिथ्या उसका असली नाम था? वो कैसी लिस्ट थी जिसकी वजह से उदित को अपनी जान गवानी पड़ी? वो तूफ़ान की तरह आयी और तूफान की तरह ही चली गई लेकिन जाते-जाते मेरा सारा वजूद मिटा कर चली गयी। क्या फिर कभी मुझे मिलेगी वो? मेरे पास तो कोई जरिया नहीं था उसके पास पहुँचने का। सारे हिंदुस्तान की निगाह में मैं उसका साथी गुनहगार था, जो हिंदुस्तान के लोगों के लिए मर कर काली नदी में फ़ना हो चुका था, आने वाली जिंदगी की अनिश्चितता मेरे सामने मुंह फाड़े खड़ी थी।
सड़क पर रोजमर्रा की अनजानी भीड़ थी। मुझे यहाँ से चले जाना था, लेकिन जाना कहाँ था कुछ पता नहीं।
(समाप्त)