वक्त और मैं
वक्त और मैं
यहां पर आकर मेरा वक्त गुजर जाता है. कुछ लिखने पढ़ने का शौक पूरा हो जाता है कुछ बातचीत हो जाती है, बस यूं ही वक्त गुजर जाता है जो मिलता है मेरे रूटीन काम के अलावा. मैं अच्छी तरह से जानता हूं कब, कितनी और क्या बात करनी है और जानता हूं वक्त गुजर जाने के बाद काम की कोई कीमत नहीं होती. किसी के लिए भी मुसीबत खड़ी करना मुझे पसंद नहीं और ना ही किसी पचड़े में पड़ना. मुझे ना तो किसी से कोई शिकायत है और ना ही किसी से कोई उम्मीद. कोई भी तब तक आप के साथ रहता है जब तक आप खुद अच्छे हैं. इसीलिए अच्छा रहना मेरी मजबूरी कहें या मेरी प्रकृति. सबके अपने-अपने सुख है तो अपने- अपने ही दुख भी है. बस कोई पचा लेता है तो कोई गा लेता है. यह अपना-अपना स्वभाव है. कौन किसको कितना जानता है यह तो वही जाने, लेकिन अच्छे रहने में बुराई ही क्या है. एक ही बात किसी के लिए अच्छी हो सकती है तो किसी के लिए बुरी. क्योंकि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, तब वक्त को अच्छे से गुजारना जरूरी होता है, वरना तो यह दुनिया वाले ना जीने देते है ना मरने.
