विविधताओं में स्वयं की सत्यता"
विविधताओं में स्वयं की सत्यता"
"सभी जो चर्च जाते हैं, वे सभी सन्त नहीं होते" - यह सत्य है। लेकिन ऐसा सत्य है जिसे कटु सत्य कहते हैं। इसे आप चर्च कहें या मन्दिर, मस्जिद गुरुद्वारा आदि जिस भी नाम से कहें। बात एक ही है। अर्थ एक ही है। इसका सीधा सा अर्थ है वे सभी लोग जो धार्मिक स्थलों में पूजा प्रार्थना वन्दना हेतु जाते हैं, उन सभी के अंतरतम के गहरे में परमात्मा के सत्य स्वरूप के प्रति और आध्यात्मिक शक्तियों के प्रति आस्था के फूल नहीं खिलते हैं। अर्थात उन्हें परमात्मा के सत्य स्वरूप के अनुभव नहीं होते। अर्थात धार्मिक स्थलों में जाने वालों की आकांक्षाएं अलग अलग होती हैं। प्रार्थना, पूजा, अरदास, नमाज आदि करने के पीछे हेतुक कामनाओं में अन्तर होता है। उद्देश्य अलग अलग होते हैं।
*सन्त का अर्थ है जिसका मन शान्त हो गया है। जिसके मन के विचारों की व्यर्थ आवाजाही समाप्त हो गई है। जिसके मन में कोई संघर्ष या उलझाव नहीं रहा है। जिसकी चेतना के तल पर विचारों की कोई लहर नहीं रह गई है। जो मन को एक काम चलाऊ यंत्र की भांति उपयोग में लाता है। धार्मिक स्थलों में जाकर प्रार्थना, पूजा, अरदास, नमाज आदि करने का भी गहरे में ईश्वरीय अर्थ यही है कि एक ऐसी अवस्था में स्थित हो जाना जिसमें यह अनुभव हो कि मन शान्त हो गया है। प्रार्थना करने वालों की प्रार्थना आदि करने का वास्तविक अर्थ ही यह होता है कि मन शान्त हो जाए और परमात्मा के निकटता का अनुभव हो। लेकिन प्रार्थना पूजा आदि करने वालों की वस्तुस्थिति प्राय: बिल्कुल भिन्न भिन्न ही होती है। अधिकांश लोगों का मन शांत नहीं होता बल्कि और ही ज्यादा अशांत होकर वापिस लौटता है। इसलिए कहा गया है कि "सभी जो चर्च जाते हैं, वे सभी सन्त नहीं होते।"
इसे और भी सरल तरीके से कहना हो तो कह सकते हैं कि सभी जो किसी धर्म से संबंधित होते हैं धार्मिक नहीं होते। इसे और भी व्यापक रूप से कहना हो तो कह सकते हैं कि सभी जो अध्यात्म विज्ञान के क्षेत्र में दाखिला लेते हैं, वे सभी आध्यात्मिक नहीं होते। इसी तरह आप किसी भी प्रकार की मान्यता वाले लोगों का यदि बहु आगामी दृष्टिकोण से निरीक्षण करेंगे तो पाएंगे कि वे अपनी मान्यताओं के बिल्कुल विपरीत जीवन जीते हैं। वे जैसा स्वयं के व्यक्तित्व के होने का दावा करते हैं वैसा प्रैक्टिकल व्यक्तित्व उनका होता नहीं है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिव के यथार्थ होने की कसौटी उसके व्यक्तिव के अनुरूप मनोस्थिति और उसके व्यावहारिक स्वरूप से होती है। अर्थात जिस प्रकार का लक्ष्य बना लिया जाता है उसी प्रकार के गुणों और गुणवत्ता पर लगातार काम करके वैसा व्यक्तित्व बनाया जाता है। यदि हम ऐसा नहीं करते और भिन्न दिशा में काम करते हैं तो...ऐसा कहा जाएगा कि चर्च तो जिन्दगी भर जाते रहेंगे पर....पर चर्च जाने का उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा अर्थात सन्त (योगी) जैसा व्यक्तित्व नहीं बना सकेंगे।
यह बात तो सहज रूप से समझ में आती है। परन्तु इसके साथ साथ यह भी हमें समझ लेना है कि जब सबके विचार संस्कार और सबका पार्ट हैं ही भिन्न भिन्न तो चर्च जाने वाले या नहीं जाने वाले सभी सन्त कैसे हो सकते हैं?! सब नंबरवार हैं और सबकी भिन्नता अपनी अपनी है। सबके एक जैसा होने की अपेक्षा करना या कल्पना करना व्यर्थ है। इसलिए यह हमारी अंतः प्रज्ञा द्वारा सिर्फ समझ लेने के लिए ही है कि एक जैसी कार्य शैली में चलने वाले लोग या एक जैसी परम्परा धर्म/संस्कृति निभाने वाले लोग या एक जैसा सामूहिक जीवन जीने वाले लोग अन्ततः अपने अपने निज व्यक्तिगत स्वभाव की निजता में अलग अलग ही होते हैं। इस विविधता के सत्य को स्वीकार करते हुए जीवन में शान्ति का स्तर उतरोतर बढ़ता ही चला जाए, उसका सातत्य बनाए रखें।
