विषय परिवर्तन
विषय परिवर्तन
उन दिनों मैं आर्ट्स विषय से एम् ए कर रहा था, संविधान और दर्शन से लेकर साम्यवाद, उदारवाद अराजकतावाद ......और भी न जाने कितने वादों का अध्ययन करके मैं अपने आप को बहुत बड़ा तत्वज्ञानी समझने लगा था, किताब के पन्नों से निकलकर मेरे सपनों में रूसो, वाल्तेयर, हीगेल, मार्क्स से लेकर विवेकानंद और गाँधी तक अनगिनत मनीषियों ने घुसपैठ कर रखा था और इन सब के अपने-अपने तर्कों की धींगा-मुश्ती से मेरे दिमाग का पुर्जा-पुर्जा झनझना जाता था...! अस्तु !!
मुझे अब किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो मेरे अंतरतम में चलने वाले इस द्वन्द को सुन और समझ सके, परन्तु ऐसा था कहाँ कोई? मेरे सहपाठी छात्र अपने आप को इन सब उलझनों से बड़ी कुशलता से खुद को बचाये रखते थे, नयी पिक्चर, महिला मित्र को अल्पाहार, किसी एकांत जगह पर बैठ कर उन अनाम हसीनाओं की याद में भाव-विह्वल होकर सुरापान करना जिन्होंने निगाहें फेर ली ........ऐसे और भी ढेर सारे कार्य थे इनके पास जिसमे वे हमेशा व्यस्त रहते थे. पिताजी और भैया को ना तो नौकरी से फुर्सत थी न ही यह सब जानने की उत्कंठा। बहन नयी-नयी रेसिपी सीखने के पीछे पागल बनी फिरती थी. ले-दे कर एक माँ थी जिसे मैं कभी-कभार उन सब सिद्धांतों को समझाने का प्रयास करता जिन्होंने दुनिया को बदल कर रख दिया था. लेकिन माँ किसी तरह सब्र करके थोड़ा-बहुत सुनती, फिर उकता कर कहती --- "तेरी शादी करा देती हूँ, बीवी को बैठ के यह सब सुनाते रहना". और मेरे अंदर से तमाम दार्शनिक बाहर आते-आते रह जाते।
ऐसे ही किसी एक दिन मैं अपने कमरे में बैठा चिंतन में तल्लीन था कि मेरी निगाह एक नवयुवती पर पड़ी जो बाहर बगीचे में फूलों को पानी दे रही थी. पहले कभी उसे देखा नहीं था सो उत्सुकता हुई,जाकर माँ से पूछा तो पता चला कि हमारे यहां काम करने वाली नौकरानी की बेटी है, नौकरानी चूंकि बीमार पड़ गयी है इसीलिए हफ्ता भर यही काम करेगी।
मैं वापस अपने कमरे में आकर कॉलेज जाने की तैयारी करने लगा....थोड़ी देर में वही नवयुवती नाश्ता लेकर आयी और सकुचाई सी मेरी ओर देखने लगी, मानों आँखों से पूछ रही कि 'नाश्ता कहाँ रख दूँ?'
मैंने उसे गौर से देखा, वह थोड़ा और सकुचा गयी, तत्काल मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, ना जाने यह मन में मेरे बारे में क्या-क्या सोच ले अतः जल्दी से पूछा -- " नाम क्या है आपका"?
उसे मेरे सम्बोधन से बहुत अचरज हुआ, चकित सी वो नज़र झुका कर बोली --- "जी, कुसुम"
"आप पढ़ती हैं"?
"जी "
"किस कक्षा में"
"बी. ए। फर्स्ट ईयर।
"सब्जेक्ट ?"
"राजनीति विज्ञान, हिंदी, सोसियोलॉजी .........."
मेरा मन - मयूर नाच उठा, मन ही मन सोचा कि यही है वो जिससे मैं अपने विषयों पर बात कर सकता हूँ.
"मैं भी एम् ए में पढ़ रहा हूँ, आपको कभी कुछ पूछना हो तो पूछ लीजियेगा"
वह सहमति में सर हिलाते हुए नाश्ता रखकर चली गयी.
अगले दिन सुबह वो मुझे फिर बागीचे में फूलों को पानी देती हुई दिखी, मैंने खिड़की से ही उसका नाम लेकर उसे आवाज़ दी, वह घबराई सी इधर-उधर देखने लगी, फिर मुझपर नज़र पड़ने से थोड़ी आश्वस्त हुई. मैंने इशारों से उसे बुलाया। थोड़ी देर बाद वो मेरे कमरे में आयी।
"आपने हीगेल का दर्शन पढ़ा है?"
उसने इंकार में सर हिलाया
"मार्क्स?"
फिर इंकार
"गाँधी तो पढ़ी ही होंगी आप"
"नहीं साहब। मैंने इन सबका नाम भी नहीं सुना, आप ये सब क्या कह रहे हैं मेरी समझ में कुछ नहीं आता, मैं ऐसी-वैसी लड़की नहीं हूँ साहब जी" --- वह बोलते-बोलते सुबकने लगी थी.
मैं हतप्रभ रह गया. वो भाग कर चली गयी.
अगले दिन माँ ने कहा..तेरे लच्छन कुछ ठीक नहीं जा रहे आजकल। पता नहीं तूने कल कुसुम को क्या कह दिया कि उसने काम पे आना ही छोड़ दिया।
मैंने अब कॉमर्स ले लिया है।
