वह रूह ..
वह रूह ..


सातवीं मंज़िल से छलाँग लगाकर मैं धरती छूती, उसके पहले ही मेरी यह रूह, मेरे सुंदर शरीर से फ़ना हो चुकी थी।
मैंने (रूह ने) कुछ क्षण रूक कर धरती पर पड़े, अपने रक्त-रंजित मुर्दा शरीर पर दृष्टि डाली थी। मेरा पूर्व का सुंदर तन, रक्त आदि से सना हुआ, अब भयावह रूप में तब्दील हो चुका था। उस पर अब कोई बलात्कार करने की न सोच सकेगा, ऐसी तसल्ली हो जाने के बाद मैं, अब आगे की यात्रा पर चल चुकी थी।
मैंने पीछे कोई सुसाइडल नोट नहीं छोड़ा था इसलिए मैंने आत्महत्या क्यों कि इस प्रश्न पर, मीडिया चाहे जो कोई गॉसिप दिखाता रहेगा। मगर मेरी आत्महत्या, मेरे परिजन एवं प्रशंसक में हमेशा रहस्य रहेगी। उन्हें पता नहीं चलेगा कि मैं एक स्थापित अभिनेत्री, अपनी 29 वर्ष की अल्पायु में क्यों? इस बुरी तरह अवसादग्रस्त हुई।
उन्हें कभी मालूम नहीं चलेगा कि वे, आज जिसे उभरता हुआ अभिनेता देख रहे हैं, उसने मेरा प्रयोग, सीढ़ी जैसा किया था। मेरी भावनाओं से खेलते हुए, जैसे ही उसके मंतव्य सिद्ध हुए, वह मुझसे कतराने लगा था। थोड़ा सफल होते ही उसने अलग मुझे हटा दिया था।
मुझसे विवाह करने के वादे से वह मुकर गया था। एक नवोदित किशोरी वय की टीवी अभिनेत्री से, उसके प्रेम के किससे, मुझे पिछले छह महीने से व्यथित किये हुए थे।
मैं, कोरोना के लॉक डाउन में, घर में अपने बेड पर अकेले पड़े पड़े, सिर्फ इस बारे में ही सोचा करती, जिससे मेरा अवसाद बढ़ता गया था। जिसकी अंत परिणति, मेरी यह मौत की छलाँग लगाने में हुई थी।
मैं कुछ आगे चली थी कि मुझे प्रतीत हुआ जैसे मेरे साथ कोई और रूह भी चल रही है। क्या कहूँ! मैं, यह सोच ही रही थी कि
वह (रूह) बोली (नारी स्वर)- हैलो!
मैंने भी, हैलो कहा (साथ ही जिज्ञासावश पूछा) - क्या, तुम भी आत्महत्या कर आई हो?
वह बोली - ओह! आत्महत्या! नहीं, कभी नहीं।
उसका उत्तर इंटरेस्टिंग था।
मैंने पूछा - फिर यह कैसे? तुम्हारी आवाज़ तो नवयौवना की प्रतीत हो रही है!
उसने कहा - मैं, डॉक्टर थी। अभी कोरोना वारियर होकर शहीद हुईं हूँ।
साथ ही उसने पूछा - तुम कैसे चल निकली?
इस प्रश्न पर मैंने, उसे, अपनी पूरी आपबीती सुनाई।
सुनकर उसने बहुत खफ़ा स्वर में कहा - ऐसा कर तुम, उस भगवान की अपराधी हो। जिसने तुम्हें, बिरले व्यक्तियों को मिलने वाली, विलक्षण क्षमता एवं लोकप्रियता दी थी। भगवान निश्चित ही तुमसे, भले काम करवाना चाहते थे। मगर तुमने यह कायरता का काम कर डाला।
मैंने कभी, एक लेखक का लिखा एक आलेख पढ़ा था। उसकी लिंक मैंने सेव कर रखी थी। जब भी, मुझे डिप्रेशन होता उसे मैं पढ़ लेती थी और नई ऊर्जा से ज़िंदगी का साथ निभाने लगती थी। काश ज़िंदगी में मेरी, तुमसे पहले भेंट होती तो तुम्हें यूँ आत्महत्या न करने
देती। इस हेतु तुम्हें, वह विधि शेयर करती जो उस लेखक ने प्रस्तावित की थी।
मैं सफल एवं लोकप्रिय अभिनेत्री रही थी। इस बात से मुझे बड़ा ईगो था। उस अहं वश मुझे, उसका यह लेखक-लेखक करना भाया नहीं था।
थोड़ा चिढ़े स्वर में मैंने पूछा - आप, मेरे जगह होतीं तो क्या करतीं ?
उसने मेरी चिढ़ अनुभव करते हुआ प्रत्युत्तर में प्रश्न किया- आपके पास कितनी दौलत थी?
मैंने सोचते हुए कहा - सब मिलाकर, यही कोई 50 करोड़ रूपये।
उसने कहा - आपकी जगह मैं होती तो 50 करोड़ को और इन 50 करोड़ से बड़ी दौलत, अपने जीवन के होने को मानती। फिर अपने ऐसे अवसाद के अधीन मैं, स्वयं की अपेक्षा को मार लेती। अपने घर में बिस्तर पर पड़ी रहना त्याग देती और इन 50 करोड़ को खर्च करते हुए, जुट जाती कोरोना विपदा के इस समय में, जरूरतमंद लोगों की, तन धन से सहायता करने में।
मैंने होशियार बनते हुए टोका - उसमें भी संक्रमित होकर मरने का खतरा तो रहता, ना!
उसने कहा - बिलकुल रहता ! मगर, जरूरतमंद लोगों की, सहायक होकर भी संक्रमण से बची रहती तो अपने समाज दायित्व के निर्वहन से, जो संतोष मुझे मिलता, उसमें अपने प्रेमी के धोखे को मैं, मेरी मानवीय अच्छाई की चेतना का, निमित्त मानती।
उसके दार्शनिक तरह के शब्द मुझे अच्छे लगे। अपनी तीव्र हुई जिज्ञासा में मैंने, संभावित संक्रमण से मौत को क्या निरूपित करतीं हैं, यह जानने के लिए उस रूह से पूछा - और, अगर इस परोपकार में मर जातीं तो? उसने जवाब दिया- तो यह और अच्छा होता। मरते सब हैं, मैं यह सोचती कि धन्य मैं, मुझे परोपकार करते हुए मौत आई। मेरे परिजन, मेरे प्रशंसक मेरी मौत से दुखी अवश्य होते लेकिन साथ ही गौरव अनुभव करते कि जीते तो सब हैं, मैंने मरकर, लोगों को जीने-मरने का ढंग दिखा दिया। उसने जीवन और मौत की निराली एवं उत्कृष्ट व्याख्या दी, मैं अनुत्तरित हुई। सोचने लगी कि हाँ, मैंने आत्महत्या करके बहुत बड़ी भूल की है। मीडिया मेरी आत्महत्या को अवश्य दर्दनाक घटना बता रहा होगा। अभी, मेरी की मूवीज के गीतों और चुनिंदा दृश्यों को दिखाते हुए अपनी टीआरपी बढ़ा रहा होगा। जिसे देख मेरे परिजन, प्रशंसक भावुक और दुःखी भी हो रहे होंगे। लेकिन सच तो यह है कि मेरे झूठे अहं एवं मेरी अति सुविधा-स्वार्थ लिप्सा ने, मुझसे कायरता का काम करवा लिया था। मुझे लगा वह, जिस लेखक का उल्लेख कर रही थी, यह दृष्टिकोण उसे, निश्चित ही उस लेखक के कथनानुसार (बकौल) मिला होगा। मेरी आत्मघाती, इस भूल का सुधार संभव नहीं था। अब मैं, उसका अनुग्रह जताना चाहती थी। अब उस लेखक के संबंध में जानना चाहती थी, लेकिन अब वह रूह अनंत में विलीन हो चुकी थी ... -