वेदपाठी ब्राह्मण
वेदपाठी ब्राह्मण
एक जमाने की बात है सिकंदर विश्व विजय अभियान पर निकलने से पहले अपने गुरु अरस्तू के पास गया और पूछा कि जब मैं भारत पर विजय प्राप्त कर लूँगा तो आपके लिए उपहार स्वरूप वहाँ से क्या लेकर आऊँ।
अरस्तू ने कहा कि भारत में जबतक एक भी ब्राह्मण जीवित रहेगा भारत को जीत पाना असंभव है। फिर भी यदि तुम भारत को जीतने में सफल हो गए तो मेरे लिए भारत से एक ब्राह्मण और गंगाजल लाना। लेकिन ब्राह्मण को जबरदस्ती मत लाना।
अरस्तू का आकलन सही निकला वह सतलज पार नहीं कर पाया और उसका गंगा दर्शन और भारत विजय का ख्वाब भी अधूरा रह गया था । उसने अपने सेनापति सेल्युकस को बोला की अभी गंगा न सही एक ब्राह्मण से तो मिल लूँ जिसे लेकर गुरु के पास जाना है। अतः उसने सेनापति को कहा जाकर एक ब्राह्मण को यूनान चलने के लिए बुला लाओ।
सेल्युकस को नदी के किनारे एक ध्यानमग्न ब्राह्मण मिला। उसने उसको अपने साथ चलने को कहा लेकिन उस ब्राह्मण पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा वह ध्यान मगन बैठा रहा।
सेल्युकस ने क्रोधित होकर कहा कि मैं विश्वविजेता सिकंदर महान का सेनापति तुमको उनके पास ले जाने के लिए आया हूँ।
ब्राह्मण ने अविचलित भाव से कहा मुझे उससे कोई काम नहीं है उसको यदि मुझसे काम है तो मेरे पास आए।
सेल्युकस बहुत क्रोधित हुआ लेकिन उसपर प्रहार नहीं किया क्योंकि सिकंदर ने स्वेक्षा से लाने को कहा था। उसने जाकर सिकंदर को यह बात बता दिया।
सिकंदर स्वयं चलकर उस ब्राह्मण के पास आया और बोला मैं विश्वविजेता सिकंदर आपको अपने साथ ले जाना चाहता हूँ।
ब्राह्मण - कौन और कैसा विश्व विजेता, तुमने तो अभी सतलज भी पार नहीं किया और खुद को विश्व विजेता समझ बैठे।
तुम्हारे कहने से मैं क्यों तुम्हारे साथ चलूँ। क्या तुम्हारे कहने से नदी अपना बहाव एक क्षण के लिए भी रोक देगी ,क्या हवा के हिलोरों पर झूमते पेड़ पौधे ठहर जाएंगे। यदि ऐसा नहीं हो सकता तो मैं तुम्हारी बात क्यों मान लूँ। तुम को जो भी कहना है कहते रहो जिसको जरूरत होगी सुन लेगा।
सिकंदर ने कहा मैं तुमको उठाकर भी ले जा सकता हूँ। ब्राह्मण मुस्कुराकर बोला वो मेरा शरीर होगा मैं नहीं। तुम अगर भारत पर कब्जा कर भी लो तो वो केवल भारत का शरीर होगा। जबतक भारत का एक भी वेदपाठी ब्राह्मण जिंदा है तुम्हारा भारत की आत्मा पर कब्जा का सपना अधूरा ही रहेगा।
इस बात ने सिकंदर को अंदर से झकझोर दिया और उसने भारत विजय का अभियान बंद कर वापस लौट गया।
आज के भारत में वेदपाठी ब्राह्मण की कोई पूछ नहीं और कोरोना काल में तो उनकी दशा मजदूरों से भी दयनीय हो गयी है।
त्रिलोचन चतुर्वेदी जी हमारे इलाके के बड़े ही सम्मानीय वेद ज्ञाता कर्मकांडी ब्राह्मण है। वैदिक परंपरा में अटूट विश्वास के कारण उन्होंने सरकारी नौकरी करना पसंद नहीं किया वैदिक पूजा पाठ और अनुष्ठान को अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाया। उनकी विद्वता का सम्मान सभी लोग करते हैं। जब चतुर्वेदी जी मंत्रोचार करते हैं तो लोग मंत्रमुग्ध हो जाते है। उनके शास्त्र ज्ञान का लोहा हर कोई मानता है।
अभी कोरोना काल में हमारा एरिया ग्रीनजोंन में है अतः फेरीवाले आकर फल सब्जी बेच जाते हैं। कल ही की बात है एक अधेड़ उम्र का आदमी माथे पर टोकरी में रखकर सब्जी बेच रहा था। मेरी पत्नी ताजी सब्जी देखकर खरीदने के लिए बाहर निकली और मोलभाव करने लगी।
उस सब्जीवाले ने कहा बहुरानी जी इतना क्या सोच रही हो आपको जो उचित लगे मूल्य दे देना। वह भागी भागी अंदर आयी और मेरे से बोली कि देखो न बाहर एक सज्जन सब्जी बेच रहे हैं लेकिन लगता है यह काम मजबूरी में कर रहे हैं।
मैं उत्सुकता वश बाहर आकर देखा तो पाया कि श्रधेय चतुर्वेदी जी सब्जी की टोकरी लिए खड़े है। देखते ही मैं उनको पहचान गया और उनकी नजरें झुक गयी। उनका चरण स्पर्श कर घर पर आने का आग्रह किया।
घर के अंदर आने पर मैंने उनसे इस परिस्थिति का कारण जानना चाहा।
पंडित जी फफक कर रो पड़े फिर मैंने उनको किसी तरह ढांढस बंधाया।
शांत होने के बाद उन्होंने कहना शुरू किया। आपको तो मालूम ही है कि मेरे जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन वैदिक अनुष्ठान और कर्मकांड ही हैं। मैंने औरों की तरह किसी से कभी मुंह खोलकर कभी कुछ नहीं माँगा। जो मिला उसी को अपना प्रारब्ध समझकर चलता रहा। फरवरी में बेटी का शादी किया और जो कुछ जोड़ बटोरकर रखा था खर्च हो गया। अब कोरोना के लॉकडाउन में दो महीने से कुछ भी आमदनी बंद है जिसके चलते भुखमरी की स्थिति आ गयी। एक गो माता थी उनको भी खिलाने की व्यवस्था नहीं हो पाती थी। अतः उनका पघा खुला कर दिया। लेकिन माँ तो आखिर माँ होती है , खुला छोड़ने के बावजूद वह वहीं पड़ी है।
अब अपना, धर्मपत्नी और गो माता का पेट भरने के लिए मुझे यह कदम उठाना पड़ा। टोकरी भर सब्जी खरीदने के लिए मुझे पंडिताइन को सासु माँ से मिला चांदी की हँसुली बेचनी पड़ी। आत्मसम्मान हाथ फैलाने से रोकता है और वैदिक ज्ञान साधना कोई भी गलत काम से रोकता है। अतः मुझे यही उचित लगा और इतनी दूर सब्जी बेचने के लिए आ गया।
पंडित जी के आँसू थम नहीं रहे थे और मैं भी अपनी आत्मग्लानि बोध की भावना को नहीं रोक पा रहा था। जिन ब्राह्मणों ने गुलामी में हजार साल बीतने के बाद भी सनातन धर्म को जिंदा रखा और आज तक हिन्दू धर्म को बचाए रखने में अहम भूमिका निभाई।
आज के इस महामारी काल मे सभी सनातनियों का यह कर्तव्य बनता है कि वैदिक धर्मी ब्राह्मणों का ख्याल रखा जाए क्योंकि किसी भी सरकारी रिकार्ड में इनकी गणना मजदूर या असहाय के रूप में नहीं होगी। हमारे धर्म ध्वजा धारकों की गिनती आखिर बेसहारा लोगों में क्यों होनी चाहिए।
मैंने चतुर्वेदी जी को अपने घर से एक महीने का राशन और दो जोड़ी कपड़ा के साथ विदाई किया।
ऐसे लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह उचित अवसर है।
फिर भी सोच अपनी अपनी क्योंकि सरकार के पास यह रिकार्ड रहता है बाढ़ में कितने लोग मर गए, आकाल में कितने लोग मर गए और महामारी में कितने लोग मर गए। लेकिन किसी भी सरकार के पास यह रिकार्ड नहीं है की आधा पेट खाकर या भूखे रहकर कितने लोग मर गए।