वाचिक चीरहरण
वाचिक चीरहरण
अपनी निजी ज़िन्दगी की किताब के पन्ने खुले करते हुए एक प्रियकर ने अपनी प्रेयसी से कहा कि, "उसे बारह वर्ष पूर्व उनकी खिलखिलाती हँसी और मधुर आवाज़ की दीवानगी थीं। पर अब, वो दीवानगी नहीं रहीं।"
प्रेयसी हक़ीक़त जानकर भी चुप रहीं। तो संदेहास्पद कथन का उच्चारण उसके कानों में गर्म सीसे की तरह उगलता हुआ पड़ता चला गया:
"आप पहले की तरह अब संवेदनशील नहीं रहें हो, आप ज़िम्मेदारियों को झटकना जानते हो, आप वो नहीं हो जिससे मैंने कभी मोहब्बत की है। आपने सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरा इस्तेमाल किया है। आज से, या यूँ समझो अभी से, मुझे आपसे और आपके साधनों से कोई सरोकार नहीं है! अलविदा!"
फिर एक बार अल्ज़ाइमर रोग से पीड़ित प्रेयसी को अपनी अनजानी ग़लतियों की सफाई देने का मौक़ा न मिला। और फिर एक बार उसका चीरहरण वाचिक रूप से हुआ!!
सती द्रौपदी को जो महसूस हुआ होगा। शायद उतना ही या फिर उससे कई गुणा अधिक बेबसियों में घुटती चली गई वो प्रेयसी।
उभरना चाहकर भी न उभर पाई। गैरों ने जो ढाए सितम, अपनों से कुछ कम ही थे।
शायद, उन्हें अपना समझना ही उस प्रेयसी की ग़लती थीं। या फिर न फिटने वाला गुनाह!!
जो उसे इस महामारी के काल में भी एकांतवास भोगने एवं घुट घुट कर जीने मरने के लिए अकेला छोड़ दिया है।
फिर, देर सवेर, अपनी जरूरतों के मुताबिक़ वो ज़िंदा है या स्वर्गवासी हो गई। ये जानने के लिए एक दो कॉल्स आते रहते हैं। आस पड़ोस के लोगों को।
ज़िंदा हूँ, हूँ मैं ज़िंदा, जान लो,
कॉल्स कर कर न करो परेशान मुझको,
जीने को ज़रूरत नहीं तुम्हारी यारों,
मरने पे आना, देने सहारा चार कंधों को।।
