Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

5.0  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Tragedy

उसने कहा था ..

उसने कहा था ..

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तीन दिन पूर्व, उसने कहा था-

आज सिर्फ हम दोनों ही बचे दिखाई पढ़ रहे हैं। मानव जाति के अस्तित्व के दृष्टि से मैं, तुमसे संबंध बनाकर, तुम्हारे द्वारा बच्चे जन्मने का उपयोग लेता, मगर मैं, संक्रमित हूँ तथा मुझ में शक्ति भी शेष नहीं है। अपरिचित उस युवक की, इस बेशर्मी का, मैं सुनते हुए, बुरा नहीं मान रही थी। अपितु मानव जाति के जीवन चक्र को स्थापित रखने की उसकी चिंता से प्रभावित हो रही थी।

वह आगे कह रहा था- अगर मैं मर जाता हूँ, तो  इस द्वीप (Island) में, कोई पुरुष नहीं बचेगा। अतः इस प्रलयकारी परिस्थिति में भी, जीवन चक्र सुनिश्चित करने के लिए, तुम, किसी प्रकार से जीवित निकलने की कोशिश करना। पूरी दुनिया में जहाँ भी कोई पुरुष मिले, तुम उसकी मदद से बच्चे जन्मना। यह तुम्हारा सृष्टि के प्रति दायित्व है।

उस दिन पस्त हो, फिर वह खामोश रह गया था। और आज, क्रमशः उसकी हालत में बिगाड़ बढ़ते जाने के बाद, वह मर गया है। कुछ दिन पूर्व-

'जहाँ सब तरफ बसती थी ख़ुशियाँ

आज वहाँ भयावह वीरानगी बस रही थी

समय ने मेरी ज़िंदगी में दिखाये थे जलवे सब अब सिर्फ यादगार रहे थे '

मैं रो रही थी, मुझे चुप कराने वाला कोई नहीं था। थक कर मैं, स्वयं चुप हुई थी। बहुत से घर थे, जिनमें भोज्य सामग्री भरी पड़ी थीं। अब जिसमें, खाने वाला कोई नहीं था। उनमें से एक, सामने के एक घर में घुस, मैंने ड्राई फ्रूट्स खा कर शक्ति बटोरी थी। जहाँ तहाँ मरे लोगों के शव, जिनसे सड़ांध आ रही थी, जो बेचारे धार्मिक रीति से कफ़न-दफ़न को भी वंचित रह गए थे पर, फिर मैंने ध्यान दिया था। उनके शवों को कैसे ख़ाक किया जाए मैंने सोचा था।

सूने पड़े एक पेट्रोल पंप से, मैंने कई कैन में, पेट्रोल डाल, एक वैन में रखा था। और उसे चलाते हुए सब तरफ घूमा था। जहाँ भी, जिस भी घर-बाहर, मुझे मनुष्य शव मिलता, उसे घसीट घर से बाहर ला कर, मैं उस पर पेट्रोल उलेड़ती और तीली जला उसे, अग्नि के हवाले करती रही थी पूरे आइलैंड में, जो लगभग 600 वर्ग किमी में फैला था, मैंने अगले दो दिनों यही काम किया था। कहीं से भी भोज्य पदार्थ ग्रहण करती रही थी। सोती, फिर जागती और कैनों में पेट्रोल इकट्ठा करती, और शवों का दहन करती रही थी। 

मुझे इस बात की परवाह नहीं रह गई थी कि विधि पूर्वक, अंतिम क्रिया न करने का, कितना पाप मेरे सिर लगेगा।

मैं उन्नीस वर्ष की लड़की थी। लगभग पचास वर्ष पूर्व, मेरे परदादा ने इस द्वीप पर आकर अपने नाते-रिश्तेदारों को आमंत्रित कर यहाँ बसाया था। खनिज संसाधनों की यहाँ प्रचुरता होने से यहाँ वैभव, समृद्धि और विकास ने डेरा डाला था। इस पर दुनिया की उच्चतम और बेहद आधुनिक किस्म के महल, मॉल सड़क, हवाई अड्डा आदि, सभी कुछ बनाये गए थे। यहाँ की अत्यंत भोग-उपभोग प्रधान जीवन शैली ने, दुनिया के रईस लोगों को आकर्षित किया था।

तीन माह पूर्व तक यहाँ का निवासी होना दुनिया में स्टेटस सिंबल था। और आज इस द्वीप के प्रति, बाकि दुनिया की वितृष्णा हमने देखी थी। इस स्तर पर, इस तेजी से, भाग्य को दुर्भाग्य में बदलते, संसार में शायद ही कहीं देखा गया था।

कोविड-19 के पहले, यहाँ की जनसँख्या 2721 हुई थी। कोविड-19 के फैलाव और उस पर यहाँ के भोगी प्रवृत्ति के लोगों की लापरवाही ने तीन माहों में पूरी तस्वीर बदल दी थी।

हमारे कुछ लोग, जो लगभग अढ़ाई महीने पहले हवाई जहाजों से, आइलैंड लौटे थे, उनमें स्वस्थ दिखते हुए भी, इंफेक्शन हमारे यहाँ पहुँच गया था। जिसका हमें आरंभ में आभास नहीं हुआ था। टीवी - इंटरनेट के जरिये दिखाये जा रहे, महामारी के अंदेशे को अनदेखा करते हुए यहाँ, हमने जश्न और पार्टी में सामूहिक भाग लेना जारी रखा था। परिणाम यह हुआ था कि मेरे अलावा शेष 2720 नागरिकों, जिनमें मेरे माता-पिता और 3 भाई बहन भी थे, ने दम तोड़ दिया था।

आरंभ में लोगों को कफ़न दफ़न मिलता रहा था, लेकिन पिछले दिनों मारे गए 2 सौ से अधिक लोग इससे भी वंचित रहे थे। सारे शवों के दहन की धुन में, नितांत अकेलेपन में भी, मेरे दो दिन व्यस्तता में बीत गए थे। उपरांत अब, मुझे तन्हाई की भयावहता डराने लगी थी।

विश्व के शेष हिस्से में, यहाँ के संक्रमण की भयावहता, ज्ञात होने पर यहाँ तक की विमान सेवा भी रद्द कर दी गईं थीं। यहाँ सभी के मारे जाने से टीवी प्रसारण, इंटरनेट एवं मोबाइल आदि की सुविधा देने वाले नहीं बच पाने से, बाहरी दुनिया से कोई संपर्क और समाचार, बच नहीं रह गया था।

मुझे ध्यान आया था कि मैं, अपनी सुंदरता, सुरीली आवाज़ में गायन से आत्ममुग्ध रहती थी। औरों द्वारा की जाती, अपनी कुशाग्र बुद्धि की प्रशंसा पर, अभिमान किया करती थी।

अब मुझे अनुभव हुआ था कि अपनी विशिष्ठताओं पर, अनुमोदना और प्रशंसा करने को जब कोई और न हो तो, रूप, सुरीला स्वर और बुद्धिमानी स्वतः महत्वहीन रह जाती है।

पार्क, गेम्स, आरामदेह घर-बिस्तर, खाने पीने की तरह तरह की सामग्रियों से भरे मॉल एवं एक से एक परिधानों की उपलब्धता में भी, मेरा मन नहीं लग रहा था।

मुझे खेद हुआ कि क्यों कर मैंने, उस जँगली वृक्ष से रिसते तरल का सेवन, संक्रमण फैलने वाले दिनों से करना शुरू किया था। क्यूँ , मेरे कहने के बाद भी, मेरे परिजन ने मेरे आइडिया की उपेक्षा की थी।

कदाचित उस तरल का सेवन मुझे संक्रमण से बचा पाया था। अगर मैं उसका सेवन नहीं करती तो शायद मैं भी, अब तक मारी जाती। और इस विडंबना से बचती, जिसमें मेरे आँसू पोंछ देने वाला कोई नहीं था और ढाँढस देने को कोई आता नहीं था। 

यहाँ की स्थिति देखते हुए मुझे यूँ लग रहा था कि कोविड-19 ने यूँ ही मौत का ताँडव शेष विश्व पर भी मचाया होगा।

तभी मेरे नकारात्मक विचारों की तंद्रा, उस युवक के सकारात्मक शब्दों के स्मरण ने, भंग की थी। जो उसने कहा था, वह मुझे याद आया था।

इससे मुझे एक तरह की, मानसिक शक्ति मिली थी। मैंने तय किया कि दुनिया के जिस भी हिस्से में, कुछ भी पुरुष-नारी मिलते हों, वहाँ की खोज पर मुझे, निकलना चाहिए ताकि, इस धरती पर मानव जाति के विलुप्ति के खतरे से लड़ने में, मैं अपना योगदान दे सकूँ।

इस हेतु 'मुझे कुछ अदद पुरुष-नारी की जरूरत थी। फिर वे चाहे कोई भी भाषा भाषी हों। चाहे, किसी मनुष्य नस्ल के हों। चाहे, किसी धर्म के मानने वाले हों। उनका खानपान, चाहे जैसा हो। उनकी शक्ल सूरत, चाहे कुरूप ही हों। इन बातों का अब, मेरी नज़र में, कोई महत्व नहीं रह गया था ' 

अब मुझे किसी पुरुष से संबंध की तीव्र उत्कंठा थी। यह उत्कंठा, नेट-सिनेमा आदि और हमारे जोड़ों में प्रचारित, सुख से प्रेरित नहीं थी। वरन, औलाद जन्मने की चाह से प्रेरित थी। जो बकौल उस युवक - मानव जाति के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक थी। मैं, नेवल इंजीनियरिंग की विद्यार्थी रही थी। मानव जाति के अस्तित्व रक्षा के संकल्प ने मुझे, द्वीप तट पर लावारिस खड़े जहाज में, अपनी संभावना के दर्शन कराये थे। तब मैंने, वैन और कैन की सहायता से जहाज़ में फ्यूल , भोज्य , मेडिसिन , कपड़े आदि दैनिक जरूरत की सामग्री लादी थी, और अपने जहाज चालन की अल्प शिक्षा का प्रयोग कर, अपने प्रयोजन की पूर्ति की खोज में, जहाज को समुद्र में उतार, अनदेखी मंज़िल की ओर मैं बढ़ चली थी। 

जहाज ने किसी तरह चलना शुरू कर दिया था। 

मेरे दिमाग में तब यह विचार कौंध रहा था कि

कैसे! 'एक वायरस ने अपना कहर बरपा कर, मानव सभ्यता के विकास के क्रम में मानव मस्तिष्क पर चढ़ा दीं गईं, सारी परतों को नष्ट कर दिया था। मैं, धर्म, नस्ल, जाति, भाषा, देश, रूप, धन, पढ़े लिखे और अन्य अनेकों भेद का, इस समय कोई महत्व अनुभव नहीं कर रही थी। 

मेरा लक्ष्य सिर्फ इस हेतु, अपना जीवन बचाये रखना था, कि इसके होने पर ही, संतान पैदा करने में योगदान देकर, मनुष्य जीवन चक्र को बरकरार रख सकने में, मैं सफल हो सकती थी। मेरा जहाज मेरे संकल्प प्राप्ति की दिशा में विशाल जलराशि पर तन्हा बढ़ता जा रहा था। 

मुझे मेरा जीवन नारी रूप मिला था, जो ही, अपने ममता, करुणा और दया बोध से मनुष्य संतति के बारे में एक माँ जैसा विचार और आचरण कर सकती थी। 

इस समय, मैं स्वयं आगे आने वाली मनुष्य जाति की, धरती माता जैसी माँ, कहलाने का गौरव अर्जित करने की तीव्रतम अभिलाषी थी।  

कालांतर में यह पता चलने वाला था कि मैं अपने प्रयोजन में सफल होती हूँ भी या नहीं ...    



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