Bhawna Kukreti

Romance fantasy

4.8  

Bhawna Kukreti

Romance fantasy

उसका खत आया है -3

उसका खत आया है -3

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इस बार मेरे खत का जवाब दो महीने बाद, वो भी कूरियर से आ रहा है।और यह उसने नहीं किसी और ने लिख भेजा है। खत की पहली लाइन पढ़ रहा हूँ, लिखा है,"नमस्ते सर , मैंम ने कहा था ये सब सामान आपकी अमानत है, याद से भिजवा दूँ।" में आधा ख़त पढ़ कर कोने में रख देता हूँ और साथ आये सामान को देखने लगता हूँ।


सामान में एक रुमाल, पेन और एक डायरी है। मगर मैं इनमे से किसी को भी नहीं पहचान पा रहा हूँ। डायरी में शायद कुछ बीच बीच मे जोड़ा गया है,अपनी मोटाई से ज्यादा लग रही है।पेन क्लासिक लग रहा है।में दिमाग पर जोर देता हूँ तो याद आता है यह मेरे पास हुआ करता था।अब धीरे धीरे सब याद आ रहा है,यह रुमाल भी मेरा है,उसने कहा था बहुत सादा रुमाल रखा करता हूँ ,वह मेरा इनिशियल काढ़ के देगी। उस दिन मुस्कराती हुई मेर रुमाल मुझे देते हुए कहा रही थी-

"ये देखो, कैसा लग रहा है?"

"क्या यार तुमने ,मर्दों के रुमाल को जनाना कर दिया।"

" पता था, बिना देखे बोलोगे..खोल के देखो तो।"

"हम्म...शुक्र है गुलाबी फूल नहीं है लेकिन काढ़ा क्या है ये?"

"तुम्हारी आंखें हैं या बटन,गौर से देखो.. तुम्हारा इनिशियल है और..।"

"ओह हाँ, पर फायदा क्या है इस सब का?"

"लाओ,इधर दो ..कोई फायदा नहीं न ..अब से ये मेरा।"


मैं फिर रुमाल देखता हूँ । मेरे चेहरे पर एक मुस्कराहट तैर गयी है,मेरे इनिशियल के साथ नीचे उसने अपना इनिशियल भी काढ़ दिया था। उस दिन उसे नहीं देख पाया था तो नाराज हो गयी थी। लेकिन ये रुमाल धुंधला क्यों दिख रहा है?

मैं आंखों को उसी रुमाल से पोछ लेता हूँ। मुझे पीठ पर उसकी एक याद कोंचती है।मैँ पलटकर देखता हूँ।

"तुम फिर से रो रहे हो ?"

"क्या? कुछ भी तो नहीं,ये तो बस ऐसे ही आंख में पानी आ जाता है।" मैने अपने मन की फिर अपने मन मे ही रख ली है हमेशा की तरह।

"झूठे..सुनो ऐसे मत रोया करो , मेरा दिल दुखता है। "

" तुम कहती हो तो अब से नहीं.." 

"नहीं,नहीं मेरे कहने का मतलब है कि मन बांट लिया करो मुझसे,ऐसे अकेले दुखी होते हो तो लगता है जैसे.."

"जैसे?"

"जैसे ..जैसे मैं दोषी हूँ । मानो मैं तुम्हे दुख से बचा नही पा..छोड़ो हटो ...कोई और बात करो"

वो आंखों में झांकने लगी है ,मैं देख रहा हूँ बहुत सारी उम्मीदें भरी है उसमें, अचानक उसकी आँखों का मंजर बदल गया है। वो उसकी एक प्रसंशिका सहेली कि बात ले आयी है।

"तुमने उसे क्यों कहा कि तुम्हारे पास कलम नही ?"

"अरे बाबा ऐसे ही,वो पीछे पड़ी थी कि उसे कुछ लेख लिख कर दे दूँ।"

"तो देते न !तुम जितना लिखोगे उतना निखरोगे।"

"ऐसे ही उलजुलूल लिख देता,और वो भी उसके लिए जिसे मेरे लिखे से कोई मतलब नही सिवाय.."

"सिवाय..?"

"लीव इट .."

"नहीं बताओ मुझे सिवाय क्या?"

"बुरा लगेगा तुमको"

"नहीं बताओगे तो और लगेगा।"

"वो मेरे करीब आना चाहती है"

"सच्ची!!!! और तुम?"

"हम्म,सवाल पूछ रही हो ? यकीन नहीं मुझ पर?"

"ऐसी तो कोई बात नहीं पर लिख देते तो क्या वो करीब आ जाती?"

"तुम्हे कुछ पता नहीं है इन तौर तरीकों का।"

"हम्म, मुझे सब पता है।"

"सच मे!! कभी आजमाया नहीं तुमने मुझपर!"

"धत्त , तुमपर क्या आजमाना।"

"क्यों भई, आजमा लोगी तो क्या हो जाएगा?"

"चुप रहो, रहने दो और ये कलम ...इसे मुझे दो।"

"क्यों, तुम्हे भी चाहिए क्या कोई प्रसंशक ऐसा.."

"नही, कोई और कलमुँही न चिपके तुमसे इसलिए।"

मेरे हाथ से कलम नीचे गिर जाती है, में देखता हूँ कि मेरे सामने उसकी डायरी है।मैं उसकी बातें सोच कर डायरी पढ़ने के लिए खोलता हूँ।

     में अब हैरान हूं, उसने पूरी डायरी में सिर्फ मेरे लिए लिखा है। वह अपनी डायरी मे मुझसे लगातार बात कर रही है। मेरी अखबारों की कटिंग भी उसने खूबसूरती से सजाई हैं।मेरी हर कामयाबी की तस्वीरों को उसने बहुत सलीके से काट कर चिपकाया है। उनके साथ उसकी खुशी उसके लिखे में दिख रही है। लिखा है, जब मिलूंगी तो तुम्हे ये गिफ्ट करूँगी।लेकिन साथ में बहुत शिकायते भी लिखी हैं कि मैंने उसे रोका क्यों नहीं? क्यों उसे नई सख्शियत में ढालने से पहले उसका मन नहीं पढ़ा ?  क्यों नहीं समझा की वह ढल रही है तो बस मेरी खुशी लिए ?नकाब ओढ़े आगे बढ़ती जा रही है तो सिर्फ मुझे, मेरी मेहनत को प्रूव करने के लिए। मैंने क्यों नहीं समझा की उसे घुटन होगी इस नई "व्यवहारिक सख्शियत" को ओढ़े रहने में? क्यों उसके इतने लंबे चौड़े ख़तों का जवाब  मैं हमेशा छोटा सा देता रहा हूँ । हर बार बस  "आई एम प्राउड ऑफ यु, ऐसे ही आगे बढ़ो, नाम कमाओ, ये ही क्यों?! क्यों नहीं ये लिख सके ,अब लौट आओ, बहुत हुआ। और भी बहुत सारे सवाल हैं।
     आगे की एंट्री में उसकी शिकायतें खुल कर आने लगी हैं। जैसे जैसे डायरी के आखिरी पन्ने खुल रहे है, उसकी घुटन और मुझसे नाराजगी बढ़ती जा रही है।मैं सुन्न होता जा रहा हूँ।ये यहां वही दिख रही है जो मुझसे मिली थी, बेहद भावुक। जबकि उसके भेजे खतों में एक अलग ही मजमून होता था कि मेरी हर बात को उसने किस तरह ,कहाँ और कब याद रखा।उसे मेरी तरबियत की वजह से कितनी तारीफें,सफलताएं मिल रहीं हैं वगैरह वगैरह ।मुझे चक्कर से आने लगे है। उसने आखिरी पन्ने पर लिखा है "काश तुम्हारी आखिरी सिखाई बात न सीख पाती, तुमसे ये सब कह पाती।लेकिन अब लगता है बहुत देर हो गयी है।"

मैं तुरंत खत उठाता हूँ , वहां लिखा है "सर आप सादर आमंत्रित है मैंम की ..."

हफ्ता बीत चुका है , मेरा लगेज तैयार है। मैं न जाता लेकिन एक वादा है अनकहा सा और उसकी सेरेमनी है....। मैं लुटा पिटा सा फ्लाइट में उसकी डायरी खोले बैठा हूँ। मेरे बगल में एक उम्रदराज सज्जन बैठे हैं जो मोबाइल पर किसी का नंबर मिला रहे हैं से जबकि अन्नोउंसमेन्ट हो गया है फोन स्विच ऑफ करने का लेकिन वे बोल रहे है, "हेलो जान बस दिल मे बात न रह जाए इसलिए.. ", ।वो मेरी ओर देखते हैं और मुस्कराते हैं  फिर मुह दूसरी ओर कर , कुछ कह-सुन कर मुस्कराते हुए फोन रख देते हैं। 
 
     मुझे याद आ रहा है तुम कहा करती थी, "तुम बस मन में ही रखना सब , देखना एक दिन ऐसे ही ठगे से रह जाओगे"। वो सच ही कहती थी।




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