उसे सांस लेने दो

उसे सांस लेने दो

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"जानते हो गिरीश ! सुधा की लड़की इतनी तेज है कि मैं तुम्हें बता नहीं सकती।" अपनी साड़ी का पल्ला सेट करते हुए, शीशे में देखकर संध्या ने कहा। गिरीश ने उसकी बातों पर ध्यान ना देते हुए पेपर के पन्ने पलटे," तुमने सुना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान में 20 जनवरी को राष्ट्रपति द्वारा महिलाओं को सम्मानित किया जाएगा।" 

"लेकिन कितने धीमे स्तर पर बदलाव आया है; तुम तो जानते ही हो गांव की हालत, मैं जब किसी गांव की गर्भवती महिला का चेहरा देखती हूँ, तो घबराहट होती है। उनके चेहरे पर लड़का पैदा करने का इतना दबाव, मैं तुम्हें बता नहीं सकती। बड़े से बड़े आदमी की अपनी गर्भवती बहू से यही इच्छा कि होने वाली संतान लड़का हो। यह प्रश्न मेरे मन को अंदर तक हिला देता है, क्या कर पाई हूं मैं अब तक इस अभियान से जुड़कर भी ?"

 गिरीश ने संध्या के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा," मैं तुम्हें सुबह सुबह अच्छी खबर देने वाला था। इस बार इंस्पेक्टर साहब बोल रहे थे। तुम्हारा नाम उस प्रतियोगिता के लिए चुना गया है। अगर तुम्हारा नाम फाइनल हुआ तो राष्ट्रपति जी के द्वारा तुम्हें सम्मानित किया जाएगा। पिछले गांव में जो भी बदलाव हुए, तुमने अपने बलबूते पर किए और बेटियों का इस धरती पर आने का मार्ग खोला। किसी एक ही आदमी के दिल में अपनी बात को बिठा देना किसी उपलब्धि से कम नहीं है।"

"राष्ट्रपति से इनाम पा लेना मेरी उपलब्धि नहीं है गिरीश, अगर कोई उपलब्धि पाने के लिए, यह काम करती तो शायद कर ही न पाती। तुम तो जानते ही हो ।" कहते हुए संध्या ने रूककर गहरी सांस ली। गिरीश बिना कुछ बोले ही कुर्सी पर बैठ गया और संध्या दरवाजे से निकल अपनी स्कूटी पर सवार हो आंगनवाडी पहुंच गई।

"मधु, मधु।"

" जी दीदी।"

" सारे बच्चों का वजन कर रजिस्टर में लिख लो।" जबसे संध्या इस आंगनबाड़ी की हैड बनकर आई है। तब से मधु के खाने के लाले पड़े हैं। अब वो दिन नहीं रहे, जब मधु घर लौटते समय अपने साथ बिस्किट के पैकेट और मुरमुरे लेकर जाती थी। आज जब खाली हाथ अपने घर लौटती है, तो बच्चे मुरमुरे की जिद करते हैं। जाने कैसे संध्या हर चीज का हिसाब रख लेती है। न खाती है न खाने देती है। इससे अच्छी तो पहली वाली दीदी थीं, कम से कम लड्डू फूटता तो खेरीजा तो हाथ लगता था और ना ही कोई काम की टेशन, ना ही गांव की गलियों में खाक छाननी पडती। शांति से पूरा दिन पेड़ के नीचे, स्वेटर बनते हुए निकल जाता। लेकिन अब तो थक चूर हो जाती है मधु। ऐसा सरकारी नौकर होना भी किसी काम का, कोई आराम ही ना मिले।

" रजिस्टर पकड़ एक काम कर आते हैं, अभी समय है। मैंने सुना है, चरण सिंह की बहू गर्भवती है, क्या सही बात है ?

" हां दीदी सुना तो मैंने भी है निकलने नहीं देते उसे। तीन लड़कियों की सफाई करा दी है उन्होंने।"

 चौधरी चरण सिंह का घर

" कितनी बार कहा है, हमारे यहां कोई औरत बच्चा ना जनने वाली।"

" लेकिन आपके घर की महिलाओं से मिलना था।"संध्या ने घर के अंदर झाँकते हुए कहा।

" के मिला था। बहुत काम होता है। हम खाली ना बैठे।"

" पर माता जी एक बार बात करा दीजिए।" चौबारे की खिड़की से एक आँख बाहर झाँककर देख रही है, उसकी नजर में आंगनबाड़ी कि वो दीदी जीवनदायिनी है। उसके बड़े-बड़े किस्से सुने हैं उसने। कैसे बगल वाले गांव की सुलेखा को मरने से बचा लिया इसने ? मेरे पैरों में अगर बेडियाँ न होती, तुम्हारे पास आ जाती। तुम्हारा ही तो इंतजार था मुझे कब से ? तुम मुझे बचा लोगी। ये लोग जीने नहीं देते, ना ही मरने देते हैं। मेरी तीन बच्चों की सफाई करवा चुके हैं, चौथी जान मेरे अंदर है। वो मुझसे जबरदस्ती करवाया गया बच्चा है। मेरी जान को खतरा था, इसलिए डॉक्टर ने कहा चौथा बच्चा हुआ तो मेरा बचना मुश्किल है।बेटी हुई इतने संघर्षों के बाद तो ये गला घोटकर मार देंगे। मुझे बचाओ, लेकिन मन की बातों की जुबान नहीं होती। जुबान खुलेगी तो दरवाजे पर खड़ी सास के कानों में पहले पहुंचेगी जो खुद औरत है लेकिन औरत का दर्द नहीं समझती।उसे वंश चलाने के लिए पोता चाहिए।" देखिए अम्मा जी अगर आप मेरा काम मुझे नहीं करनी देंगी, तो मुझे एक्शन लेना पड़ेगा। मुझे सारा ब्यौरा ऊपर देना पड़ता है। ये सरकारी कार्यवाही है।"

 माता जी ने अपना पल्ला थोड़ा सा पीछे की तरफ झटके से मोड़ा और मुंह बनाते हुए किशोरी को आवाज दी किशोरी पीला पडता शरीर, मैली कुचैली साडी, कपडों से आती गोबर की बदबू अपने दोनों गीले हाथ पल्लू से पोंछती हुई ,"हाँ माता जी।" कहती किशोरी दो मंजिला बने पक्के मकान से बाहर निकली। जो मकान शान और प्रतिष्ठा का प्रतीक है, चौधरी चरण सिंह पिछली बार सरपंच का चुनाव लड़ चुके हैं लेकिन मायूस और हताश रहते हैं। तीन बेटे होने के बाद भी, उनकी तीनों बहू मिलकर भी उनके वंश को थोड़ा सा और आगे नहीं बढ़ा पाईं। बड़ी बहु एक बेटा करके रह गई। मझली बहु के जापे में जाने क्या ऊँच नीच हुई राम जाने, वो उसी समय दम तोड़ गई। अब छुटकन की बहू से ही थोड़ी आस है, उसने भी तीन बेटियों के ही दर्शन कराए। ले देकर एक ही पोता है, जिसका मुंह देकर चरण सिंह जी घर से निकलते हैं। लड़की सामने पडें तो दिन शुभ नहीं जाता रह-रहकर उन्हें अपने वंश की चिंता सताने लगती है। माता जी के तीन बेटों पर एक बेटा है। जिस दिन बेटा होने वाला था, किशोरी को ईश्वर से यही उम्मीद थी, इस बार बेटी मत देना ये उसकी नफरत नहीं थी, वो बेटी नहीं चाहती। वो तो अपनी बेटियों की ऐसी दुर्गति नहीं चाहती, जिन्हें ना ही ढंग से खाने के लिए दिया जाता है, ना ही पहनने के लिए। सारे घर के कामों में चक्की की तरह पिसती हैं। नहीं चाहती थी कि चौथी जान और इस चक्की में पीसने के लिए आ जाए।जब एक मां अपनी एक संतान को दूध का कटोरा और दूसरी संतान को छाछ का कटोरा पकड़ाती है तो उसके हृदय में कितनी पीड़ा होती है यह वही जानती है।

" कितनी बहू हैं आपकी ?" रजिस्ट्री में एंटीक करते हुए संध्या ने माता जी से पूछा।

" दो"

' दूसरी वाली कहां है ?"

" पीहर गई है अपने।"

" मैंने सुना है वह गर्भवती है ?" रजिस्टर में नजरें गड़ाए एंट्री करते हुए संध्या ने पूछा।

" हमने ना सुना तो तूने कैसे सुना ?" संध्या को देखकर माता जी ने मुंह मटकाया। संध्या ने किशोरी की तरफ देखा और कहा," अपने बच्चों को आंगनवाडी भेज दिया करो। कितने बच्चे हैं ?"

" तीन बेटी और एक बेटा।"

" बेटियां स्कूल जाती हैं ? किशोरी ने गर्दन को नीचे झुका, थोड़ी देर बाद अपनी गर्दन सास की तरफ मोड़ दी।कही एसा ना हो सास की उपस्थिति में उससे कोई एसा जवाब निकल जाए, बेटियों को मिलने वाली छाछ भी भैंस के चारे में ज्यादा उपयोगी लगे ," छोरियों को ना पढ़ाते हमारे यहां। कलेक्टर बनेंगी का पढ़कर ? गोबर पानी करना तो क्या पढ़ाना ?" माता जी ने लपकर जवाब दिया।

" माता जी, आपसे किसने कहा कि लड़कियां कुछ नहीं बनतीं ? आप पढ़ाएंगी नहीं तो बनेंगी कैसे ? शुभांगी स्वरूप,मधु आजाद, गीता जौहरी, तनुश्री पारिख, आशा अग्रवाल जाने कितनी एसी आज की लड़कियाँ जिन्होंने हर क्षेत्र में नाम कमाया है।"

" ज्यादा पंचायत मत ठोक।काम करने आई है, अपना काम कर। हमारे पास सुबह सुबह दिमाग खराब करने का समय ना है।जा तू काहे खडी है ?" चिलम सुलगाते हुए दाँत पीसकर किशोरी पर माता जी चिल्लाई।

आंगनवाड़ी के गेट के बाहर एक गाड़ी खड़ी है जाने कौन होगा ? यही सोचते हुए संध्या आगे बढ़ी," नमस्कार।" दो अफसर बैठे उसका इंतजार कर रहे हैं।

" नमस्ते बैठिए।"

" हम महिला कल्याण विकास प्राधिकरण से आए हैं। 2015 में चलाए गए अभियान बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ में, प्राप्त की गई सफलता पर, इसबार राष्ट्रपति जी के द्वारा सम्मानित महिलाओं में आपका नाम भी चयनित हुआ है। 20 जनवरी को प्रोग्राम है। आपके जैसी महिलाएं, समाज निर्माण में अहम भूमिका निभा रही हैं और हमारा फर्ज है, ऐसी महिलाओं को आगे लाया जाए, जिससे महिलाओं का पूर्ण विकास संभव हो। आंगनवाड़ी के बाद भी आप महिलाओं को अपनी सभाओं द्वारा प्रेरित करती हैं, उससे काफी जागरूकता आई है, आस-पास के गांव में आपका नाम कौन नहीं जानता ? यहां की महिलाओं के लिए आप एक उम्मीद की किरण हैं।" संध्या धन्यवाद में बस अपने हाथ ही जोड़ पाई। जाने क्यों ऐसे मौकों पर वह पीछे हट जाना चाहती है।

वही मधु का मन जान चुका है कि संध्या के इस अनुशासित आडंबर का अर्थ क्या है ? यही कि वह अपना नाम कमाना चाहती है और बड़े-बड़े पुरस्कार जीतना चाहती है। चाहे उसके जैसी गरीब महिला के बच्चे मुरमुरे के लिए भी तरसते रहें। उसने तो यही सोचकर नौकरी की थी, दो पैसे के बाद कुछ खाने पीने को भी आंगनवाड़ी सहारा देगी।

किशोरी से मिले हुए मुश्किल से पाँच दिन हुए होंगे कि आंगनवाड़ी के दरवाजे पर वही जाना पहचाना चेहरा दोबारा दिखा," नमस्कार बहन जी !"

" नमस्ते तुम तो वही हो ना ?"

" जी मैं वही हूं लेकिन यहां मैं अपने लिए नहीं आई हूं मैं अपनी देवरानी के लिए आई हूं। उसका पूरा टाइम चल रहा है। बच्चा किसी भी समय हो सकता है, वो चाहती है, चाहे ! वो मर भी जाए लेकिन उसका बच्चा बचना चाहिए ?"

" लेकिन वह तो अपने घर पर है ना ?"

" नहीं, यही है, मेरी सास नहीं निकलने नहीं देती। अगर लड़का हुआ तो ढोल बजाकर सब को बताया जाएगा और लड़की हुई तो घर के अंदर ही मार कर किसी कोने में दबा दी जाएगी।"

" आपसे ही उम्मीद है बस, उसके बच्चे को बचा लीजिए।"

" तुम डरो मत; मैं अपनी पूरी ताकत लगा दूंगी, जितनी मेरे अंदर सामर्थ्य है। बस जब उसको लेबर पेन शुरू हो तो मेरे पास एक फोन कर देना।" अपना नंबर किशोरी को देते हुए संध्या ने उसे आश्वासन दिया। आंगनवाड़ी के दूसरी तरफ आती हुई किशोरी की सास की नजर, किशोरी पर पड़ी तो मानो किशोरी के अंदर खून ही ना रहा हो," यहां क्या कर रही है ?"

 दबी आवाज में किशोरी ने अपनी सास से कहा," माताजी मैं तो यहाँ से निकल रही थी, दीदी ने बुला लिया।" फोन की पर्ची को मुट्ठी के अंदर पूरी ताकत से दबा, अपनी सारी हिम्मत जुटा किशोरी ने जवाब दिया। तंबाकू चबाती हुई सास ने, दोनों हाथ कमर पर रख, संध्या की ओर देखा और अपनी कड़वी जुबान खोली," हमारे गांव की औरतों को बिगाड़ कर रहेगी। मेरा मुंह मत खुलवा ? खुद का तो कोई बच्चा है ना,जो छोरी जनी सब मर गईं, अपने सास-ससुर को एक घर का चिराग तक ना दे पाई; बांझ कहीं की। अब यहां चली आई है, बड़ी आई हमारी छोरियों का कल्याण करने वाली। चल !" अपने हाथ से किशोरी की बांह पकड़ सास ने, उसे आगे की ओर धकेला। किशोरी की आंखों में क्षमा प्रार्थना झलकती थी और संध्या को तो रोज ही ऐसी कड़वी बातें सुनने की आदत थी। कोई दिन ऐसा जाता, जब उसे ऐसे संबोधनों से ना पुकारा जाता हो। सच्चाई और परोपकार की राह इतनी आसान नहीं, जितने आसान शब्द होते हैं। नहीं भूल पाती जन्म देने के बाद गला घोट कर मारी गई अपनी दोनों बेटियों को और अपनी 6 साल की नन्हीं पायल को, जिसे चाहकर भी ना बचा पाई। उसने उसकी गोदी में दम तोड़ दिया। यह कहते हुए," मां ! मुझे धक्का दादी ने दिया था।" उसने संध्या को मां तो बना दिया लेकिन जाते-जाते खुद से मिलवा गई। अब यही जीवन का सत्य है, जब तक जीना है, बेटियों के लिए ही जीना है। 

 लेबर पेन की बात सुन संध्या पुलिस चौकी में बैठी थी, लेकिन सब-इंस्पेक्टर ने साथ चलने से इंकार कर दिया," मैडम ! देखिए चोर-उचक्कों को पकड़ना हमारा काम है। बच्चा जनाना हमारा काम नहीं है।"

" आप समझ नहीं रहे हैं इंस्पेक्टर साहब। वह लोग बच्चे को मार देंगे।"

" देखिए यहां और भी बहुत काम है हमें अभी निकलना है एक चोर को पकड़ने के लिए।" पान चबाते हुए इंस्पेक्टर ने कहा। इंस्पेक्टर का बढ़ा हुआ पेट उसके पांच उंगलियों में पड़ी सोने की अंगूठियां और भैंसे जैसी चैन, उसकी तनख्वाह की चुगली कर रही थीं। दरवाजे के पीछे खड़े रामसुख हवलदार ने अपनी टेढी टोपी जरा सी सीधी की और हाथ से बाहर का इशारा संध्या की तरफ किया। उसकी खुद की बेटी चार बार ऐसी हालातों का शिकार हो,ससुराल की दहलीज पर दम तोड़ चुकी थी। कितने पछताए थे वह, अपनी बेटी को पढ़ा लिखा कर अगर किसी अच्छे स्थान पर पहुंचा दिया होता, तो शायद जीवन में वह दिन नहीं देखती जो उसने देखा। आगे पढ़ना चाहती थी वह। बाहर आकर धीरे से एक फोन नम्बर संध्या के हाथ में पकड़ा कर सुखराम ने कहा," बड़े साहब का टेलीफोन नंबर है। वह घर पर हैं और ऐसी स्थिति में वह आपकी जरुर मदद करेंगे। बड़े ईमानदार आदमी हैं ।"कौन कहता है इमानदारी नहीं है, कुछ चंद मुट्ठी भर लोगों की वजह से उसका अस्तित्व आज भी दुनिया में कायम है। एक फोन करने की देर थी कि इंस्पेक्टर साहब तुरंत चौकी में हाजिर हुए और चल पड़ा एक काफिला चौधरी चरण सिंह की घर की ओर। दांत पीसती हुई माताजी बाहर आई लेकिन संध्या के पीछे खड़ी पुलिस को देख कर कुछ कह ना पाईं, सकपकाती हुई कुंडी खोल एक तरफ खड़ी हो गई।

 पूरे घर में घूमती संध्या आखिरकार उस अंधेरी कोठरी तक पहुंच ही गई; जहां से कभी छुटकन की बहू ने, एक आंख खोलकर संध्या की तरफ आस भरी नजर से देखा था; यह मुझे बचा लेगी। उसने धुंधली सी तस्वीर संध्या की देखी, जैसे साक्षात मां दुर्गा आ गई हो और एक चैन की सांस लेकर अपनी आंखें बंद की। ईश्वर कहां खुद आता है वह तो किसी को भेजता है जरिया बनाकर और ऐसा ही हुआ। पहले इंतजाम कर कर आई हुई संध्या ने, आधे घंटे के अंदर ही छुटकन की बहू को अस्पताल तक पहुंचा दिया था। आधे घंटे के असहनीय दर्द के बाद स्वस्थ बेटी का जन्म हुआ, तो संध्या की आंखें भीग गईं। उस नन्ही सी जान में, अपनी मरी हुई तीन बच्चियों को देखा जिनके पाप से वह आज तक मुक्त नहीं हो पाई थी। जब एक के बाद एक उसकी बेटियों की सफाई उसकी सास ने करवा दी थी और वह कुछ बोल नहीं पाई थी। ईश्वर ने फिर कभी उसे मां बनने का मौका नहीं दिया। नर्स ने हाथ में एक सफेद रंग की पट्टी बांध बच्ची को संध्या की गोद में दे दिया। अभी मुस्कुराकर देख भी नहीं पाई थी, गिरीश सामने से आता दिखा," देखो ना ! गिरीश कितनी प्यारी लग रही है।"

" संध्या आज क्या तारीख है पता है तुम्हें ?"

" नहीं ?"

" आज 20 जनवरी है आज तुम्हें इनाम मिलने वाला था राष्ट्रपति जी के हाथों लेकिन विधायक जी की रिश्तेदार; वह ज्यादा बड़ी समाज सेविका निकली।"

 मुस्कुराते हुए संध्या ने जवाब दिया," तुम बहुत भोले हो गिरीश, जब ईश्वर ने इतना बड़ा इनाम दिया है तो राष्ट्रपति के नाम की क्या आवश्यकता है। तुम इसका चेहरा देखो इसकी मुस्कुराहट ? अगर मैं एक घंटा और लेट होती, तो यह हमारी बेटियों की तरह आंखें ना खोल पाती और मैं अपनी आँखों के सामने दूसरी काजल नही देखना चाहती।तुम जानते हो मुझे लालच ना इनाम का, ना ही नाम का; पर मैं जीवनभर ईश्वरप्रदत्त ऐसे इनाम का लालच रखना चाहूंगी।"

छुटकन की बहू के सिरहाने खड़े हुए मधु की आंखों में शर्मिंदगी के दो आंसू छलक गए।


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