अपराध
अपराध
सर्दियों की रात में ठंड और अंदर तक चीर देती है। और वो भी दौड़ती हुई रेलगाड़ी के अंदर तो हवा शरीर को पार करती हुई निकल जाती है। अपनी पूरी तेज़ गति से गाड़ी दौड़ रही है। रजनी बच्चों के साथ कोल्हापुर अपने मायके जा रही है। अब मायके जाना तो एक रस्मो-रिवाज सा ही शेष रह गया है। दोनों बच्चे भी थक कर सो चुके हैं। उनकी बर्थ पर ही आधे पैर पसारे रजनी भी वही आँखें बंद करके लेटी है। इतनी छोटी जगह में सोना तो जैसे बहुत मुश्किल ही है। नींद ना आने के कारण, कभी पानी और कभी शौचालय बस यही दो चीजें खाली होने पर करने के लिए रह जाती हैं।दो बोगियों के बाद एक शौचालय है। दो बार जाकर आ चुकी रजनी का ध्यान, बार बार शौचालय की दूसरी तरफ, दरवाज़े के पास बैठे कंबल ओढ़े एक व्यक्ति पर चला जाता है। कंबल की हालत भी कुछ ज्यादा अच्छी नहीं है। बढ़ी हुई दाढ़ी और चिपके हुए बाल उसकी गरीबी का मज़ाक उड़ा रहे हैं लेकिन ऐसे दृश्य तो बहुत आम सी बात है, अगर आप किसी सफर पर हैं, तो विचलित तो नहीं होना चाहिए। रजनी का भी यही मानना है, अगर कोई ग़रीब है? उसका भाग्य है। भाग्य से लड़ा नहीं जा सकता।
दो चार बार झपकी भी लगी रात में, फिर वही स्वप्न रोज वाला और नींद का टूट जाना। सुबह होने को थी तो एक नोबेल जो पर्स की साइड वाले पॉकेट में पड़ी थी जिसको कब से खत्म करने की सोच रही थी, जो अब तक नहीं खत्म हुई है। प्रेम कहानियाँ, प्रेम उपन्यास पढ़ने का रजनी को जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही शौक था। औसत दिखने वाली रजनी कभी बहुत ज्यादा खूबसूरत नहीं रही है। खूबसूरत ना रहने का अर्थ ही तो नहीं होता कि उसमें प्रेम करने की इच्छा और रोमांस कम हो जाता है। शायद! खूबसूरत ना होने से ये तीव्रता और बढ़ जाती है। जब आप उस दौर से गुजरते हैं, जब आप चाहते हैं कि आप से कोई प्रभावित हो या आप किसी को प्रभावित करें।
वो कहानी ही क्या? जिसके साथ साथ आप अपने जीवन को ना जी पाएं। उसका हर अक्षर से ऐसा लगता है, कहीं न कहीं ये मेरी खुद की कहानी है। लेखक कैसे जान सकता है, वो सब कुछ जो कही मेरे मन की गहराइयों में बसता है? प्रेम कहानी पढ़ने का दूसरा कारण भी है रजनी का असफल प्रेम, जो उसे उसके अपराध बोध का बोध कराता है। अधूरे प्रेम की स्मृतियाँ मिटाना बहुत ही मुश्किल होता है।वो भी तब जब सामने वाले से आपको इतना प्रेम ना मिला हो जितना आपने उसे किया।
बचपन से ही साथ खेलते बड़े हुए आदित्य और रजनी। बचपन में ही रजनी आदित्य को अपना दिल दे बैठी थी। लंबा, गोरा, हष्ट पुष्ट स्मार्ट दिखने वाला आदित्य, किसी भी लड़की के दिल में अपने लिए जगह बना सकता था। क्लास एक थी इसलिए रजनी आदित्य के और करीब आ गई। किसी के प्रेम में पड़ जाना, बहुत सुखद एहसास होता है पर हम अपने प्रेम का इज़हार करने से डरते हैं। कहीं ऐसा न हो कि अगर नकारात्मक प्रतिक्रिया आई तो हम बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे, ऐसा ही कुछ रजनी के मन में भी था। आखिर! आदित्य इतना अच्छा दिखता था, लड़कियों में उसकी बातें अधिकतर सुनने को मिलती थीं क्यों वो औसत दिखने वाली लड़की को पसंद करेगा?
दुनिया भर की ऐब आदित्य के अंदर थे, शराब, सिगरेट हर आती-जाती लड़की को छेड़ना। खूबसूरत चेहरे के अलावा कुछ भी नहीं था उसके अंदर, जिसपर मर मिटा जाए। सुना था प्यार अंधा होता है, बस रजनी उसी अंधे प्यार में विश्वास कर आदित्य के और करीब जाना चाहती थी। जरूरी नहीं हर बात आपकी समझ में समय रहते आ जाए, कभी-कभी चीजें आसान होते हुए भी समझ नहीं आतीं। लाख दोस्तों के समझाने के बाद भी उसकी हर ग़लती को नज़रअंदाज़ कर देती थी रजनी। वो तो बस इसी से खुश थी कि वो दो मीठी प्यार की बातें रजनी से कर लेता था।
आदित्य तो केवल स्वार्थी था। कभी जब उसके पिता जी उसे घर बाहर निकालते, तो रजनी ही थी जो उसे कभी भूखा नहीं सोने देती थी। सौ दो सौ रुपए उधार भी माँग लेता रजनी से। जब भी दारु पी लेता तब उसे अपना प्रेम याद आता। हाँ रजनी ने अपने तन को तो बचा कर रखा था लेकिन मन क्या ?उसकी कोई कीमत नहीं। इतना अटूट विश्वास था रजनी को उसपर चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए लेकिन आदित्य ऐसा नहीं कर सकता। सात जन्मों का वादा, शादी, बच्चे इतने सारे प्लान इन बहुत सारी मीठी मीठी बातों से रजनी दो मिनट में खुश हो जाती। बेवकूफ़ नहीं थी लेकिन जहाँ मन काम करता है वहाँ दिमाग कहाँ किसी को समझा सकता है।
सरोज के लाड ने आदित्य को हद से ज्यादा बिगाड़ दिया था। वो आदित्य के पिता की दूसरी पत्नी थीं। जिनसे उनको एक बेटा आदित्य था, बाकी दो बेटी और एक बेटा राजेश्वर जी की पहली पत्नी से थे। सरोज का सारा प्यार आदित्य को ही मिला, जिसने आदित्य को ऐसा बना दिया। दोनो बेटियाँ शादी करके अपने घर जा चुकी थीं।
आदित्य से एक साल बड़ा विष्णु। माँ का प्यार नहीं मिला यही कारण था या कोई और कारण, अल्प बुद्धि ही रह गया। सारी समझ थी उसके अंदर लेकिन उसने छल कपट नहीं सीखा। सरोज का कठोर स्वभाव कहीं न कहीं विष्णु की स्थिति के लिए जिम्मेदार था। बड़ी बहनों ने उसे पाला। बड़ी बहनों ने माँ का किरदार बखूबी निभाया। वो समझती थीं अपने भाई को कुछ पौधों को सींचने के लिए बेहद प्रेम की आवश्यकता होती है। छोटी बहन के विवाह को पाँच साल और बड़ी बहन के विवाह को सात साल हुए, समझो! आश्रय लुट गया उसका। विष्णु बिल्कुल अकेला हो गया, ना कोई खाने की पूछने वाला, न कोई खाने के लिए देने वाला। कभी पैंट की चैन लगाना भूल जाता, कभी शर्ट के बटन ऊँचे-नीचे लगाकर घूमता रहता। बालों में तेल लगाता तो सिर्फ थोड़ा सा तेल हथेली में लेकर अपने आगे वाले बालों पर रख लेता और जब कभी सुंदर बनने की इच्छा होती तो थोड़ा ज्यादा सा पाउडर गोरा होने के लिए भी लगा लेता। एक दिन तो पिटा भी उसे नहीं पता था जो पाॅउडर उसने लगा लिया वो सरोज का है।
निरंतर माँ का रुखा व्यवहार उसे पागल साबित करने पर तुला था। जहाँ आदित्य बचपन में बॉनवीटा का दूध पीता, वही वो पानी मिला दूध। जब कभी पिताजी से शिकायत कर देता तो उसका भुक्तान पिताजी के जाने के बाद करना पड़ता। उस पूरी रात बड़ी बहन अपने भाई की सिकाई करते हुए गुजारती। सिलाई भी इसलिए करती कि उसके भाई को भी वही टॉफी खाने के लिए मिले जिसे आदित्य खाता है। बहनों के जाने के बाद सरोज अब आसानी से अपनी किसी भी ग़लती का इल्जाम विष्णु पर लगा सकती थी और वो सफाई भी नहीं दे पाता। इतना पिटा था बचपन से कि वो अपनी सही बात भी अपने पिता से नहीं कह सकता था। माँ की आँखों से उसे डर लगता, रोता वो अब भी था लेकिन अब उसके आँसू पोछने वाला कोई नहीं था, रोता हुआ किसी कोने में वही सो जाता।
इक्कीस साल का विष्णु बुद्धि से अब भी बच्चों जैसा ही था। डरा सा, सहमा सा डर ने उसे और कमजोर बना दिया, जब भी बहनें आतीं तो उनकी गले से लिपट कर यही कहता, मुझे छोड़कर मत जाओ। वो भी क्या कर सकती थीं ? पराश्रित तो वो भी थीं। साथ भी नहीं ले जा सकतीं। सरोज ने विष्णु को कभी स्कूल नहीं भेजा। पहले घर के सारे कामों में विष्णु को व्यस्त रखती अब वो घर के साथ-साथ बाहर के काम भी करता। हिसाब किताब लगा लेता लेकिन धोखाधड़ी को नहीं पहचान सकता था। जब भी धोखा खाता तो घर आकर और डांट खानी पड़ती। आस पड़ोस रिश्तेदारी में सभी को सहानुभूति थी, विष्णु के साथ। सहानुभूति किसी के दर्द को कम नहीं कर सकती। वो बेचारा ईश्वर से ये भी नहीं कहना जानता था, मेरी माँ को तूने समय से पहले क्यों छीन लिया। जब तू हर जगह उपस्थित नहीं रह सकता इसलिए माँ बनाई तो माँ तेरा रूप होने के बाद भी मेरे पास उपस्थित नहीं। जब मनुष्य ज्यादा समझदार होता है, तो हर कड़वी बात को दिल से लगा कर रखता है और उसके लिए उस बात को भुलाना उतना ही मुश्किल होता है। मासूम बच्चे जैसा मन, पल में ही अपने साथ हुई हर क्रूरता को भूल जाता है। समय मिलता तो गली के बच्चों के साथ खेल लेता। बच्चे हँसते जब वो अपनी उंगली पर नेल पेंट लगाकर बच्चों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश करता, देखो ये खून है, देखो ये खून है।
एक दिन तो सरोज पिताजी के सामने विष्णु को चोर साबित करने में भी कामयाब रही, जब मेज पर रखे हुए पाँच रूपये उठा उसने बाहर जाते आइसक्रीम वाले से एक ऑरेंज आइसक्रीम खा ली। पूछने पर मना किया मैंने पैसे नहीं दिए। नादान ये नहीं जानता था, आइसक्रीम खाते-खाते उसकी शर्ट पर टपक गई। उस दिन तो पिताजी से भी उसे एक थप्पड़ पड़ा अब तुम चोरी भी करोगे?
उस दिन रजनी अपनी छत पर खड़ी थी। तभी घर से निकलते हुए उसने आदित्य को देखा। शाम का समय था सात बजे के करीब, ना अंधेरा था, ना ही उजाला। भागकर नीचे आई। वो आदित्य से मिलने का कोई मौका छोड़ने वाली नहीं थी। बाइक के सामने खड़ी होकर पूछने लगी," कहाँ जा रहे हो?"
झल्लाते हुए आदित्य ने जवाब दिया," हटो! सामने से बहुत ज़रुरी काम है मुझे।"
" ऐसा क्या ज़रुरी काम है? दो मिनट का टाइम नहीं है तुम्हारे पास।"
" है कुछ।" आदित्य बहुत हड़बड़ाहट में था। थोड़ा डर उसके चेहरे पर झलक रहा था। रजनी आसानी से पहचान सकती थी तो उसने पूछ लिया," क्यों परेशान हो?" उसने हकलाते हुए कहा," नहीं मैं कहाँ परेशान हूँ।"
" लग तो रहा है?"
" क्या, क्या लग रहा है? तुम्हें क्या लग रहा है? मैं परेशान हूँ। मेरे चेहरे पर लिखा है।"
" अरे! गुस्सा क्यों करते हो? मैं नहीं पूछूँगी तो कौन पूछेगा?"
" अच्छा! ठीक है, ठीक है आगे से हट। मुझे बहुत जल्दी है।"
" कहाँ जा रही है सवारी? "
" तुमसे मतलब, जहाँ भी जाऊँ तुम्हें बता कर जाना चाहिए क्या मुझे?" आदित्य गुस्से में चिल्लाया। रजनी ने रास्ता छोड़ दिया। तभी! बाइक स्टार्ट करते समय आदित्य की जेब से निकलकर कुछ ज़मीन पर गिर गया। रजनी झुक कर उठाने वाली थी, उससे पहले ही, आदित्य ने उसे रजनी के हाथ से छीन लिया। फिर भी रजनी ने पहचान लिया," ये तो सरोज आंटी का हार है?"
"हाँ, माँ का हार है।"
"पर तुम्हारे पास?" आदित्य गिरगिट की तरह रंग बदल लिया और रजनी के चेहरे पर हाथ लगाते हुए कहा," रजनी तुम मुझसे वादा करो तुम किसी से नहीं कहोगी कि मेरे पास माँ का हार था।"
" तुम क्या करोगे इसका आदित्य?"
तुम्हें तो पता है रजनी, मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ। शादी करना चाहता हूँ लेकिन शादी जब तक नहीं हो सकती जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं होता। हम सारे दोस्तों ने मिलकर एक बिजनेस करने की सोची है। तुम तो पिताजी को जानती हो वो कभी पैसे नहीं देंगे और माँ के पास इतने पैसे होते नहीं। अब मैं उनसे ये तो नहीं कह सकता ना कि अपना हार दे दो। बस थोड़े दिन की बात है बिजनेस चल जाएगा तो इस से भी बड़ा हार मैं माँ के लिए बनवा दूँगा और तुम्हारी और मेरी शादी की बात भी करूँगा। तब तक तुम ये बात किसी से मत कहना।" शादी का नाम सुनते ही रजनी सब कुछ भूल गई।सब कुछ आदित्य का ही तो है। कौन सा आंटी साथ लेकर जानी वाली हैं। वो तो खुश हो जाएंगी जब उनको इससे भी बड़ा हार मिलेगा।
पंद्रह दिन बाद गली में बहुत शोर था। रजनी अपने घर से बाहर झाँकने के लिए आई तो देखती है, रामेश्वरम अंकल अपने जूते से विष्णु को मार रहे हैं। भागकर भीड़ के पास पहुँची तो कानाफूसी सुनी थी, हम तो अब तक बच्चा समझते थे। अब घर में चोरी भी करने लगा। ऐसे सरोज कौन-कौन सी चीजों पर ताला लगाएगी? बताओ हार ही चुरा लिया। कितना शातिर दिमाग है। हामी ही नहीं भर रहा। विष्णु अपना बचाव करते हुए हाथ जोड़कर रोता हुआ बोल रहा था," पिताजी! मैंने नहीं चुराया, मैंने नहीं चुराया।"
"झूठ और बोलता है। झूठ बोलना सीख गया है।" कहते हुए एक और जूता विष्णु की कमर पर पिता जी ने मार दिया। आदित्य बगल में हाथ लगाए गेट के पास खड़ा था और सरोज आंटी दांतों को पीती हुई कह रही थीं, "इतना ढीट है। इतना पीटने के बाद भी नहीं मान रहा। अरे! मैं इसके भले के लिए ही तो कहती हूँ। मुझे भला क्या दिक्कत हो सकती है, इसके यहाँ रहने से। पर कम से कम घर में चोरी तो ना करे। रामेश्वर जी की तरफ इशारा करते हुए सरोज बोली, आप हमेशा कहते थे कि मैं बहुत कठोरता से रखती हूँ, कठोरता से रखने के बाद भी ये हाल है। गलतियों पर तो अपनी माँ भी डाँटती है ,सौतेली माँ का तो नाम ही बुरा है।
कजरी चाची ने आकर रामेश्वर जी का हाथ पकड़ लिया। मार ही डालेगा क्या बेचारे को? रामेश्वर प्रेम करते थे विष्णु से, पर दिन रोज उसके खिलाफ घोले जाने वाला जहर, दोनों बाप बेटे के बीच की दूरी बन गया। कजरी चाची की तरफ देखते हुए एक आँसू झलक ही गया रामेश्वर जी की आँख से जो उनके प्रेम की पुष्टि करता था। अपने जूते को वहीं ज़मीन फेंककर वो अंदर चले गए। बिना किसी से कुछ बोले।
सरोज ने अपने मुँह को मटकाते हुए आदित्य को झटके से अंदर की तरफ खींचा और अंदर से अपना गेट बंद कर लिया। अपने दोनों हाथों से अपने चेहरे को छुपाए, विष्णु अभी भी सड़क के बीचो बीच पड़ा था। कजरी चाची ने थोड़ा सा उसे पुचकारा, जो वहीं एक चाय का खोखा चलाती थीं। घंटों विष्णु बैठकर चाची से बतलाया करता। चाची से गले लग कर बहुत रोया, एक बात की रट लगाए," मैंने चोरी नहीं की। मैंने चोरी नहीं की।" पास ही खड़ी रजनी चाहती तो एक पल में विष्णु को निर्दोष साबित कर सकती थी। लेकिन वो एक प्रेमिका से हार गई। अपनी खिड़की का थोड़ा सा पर्दा हटाकर बार-बार वो गेट पर बैठे विष्णु को देख लिया करती, जो अपने शरीर पर पड़े जूतों के निशानों को कभी सहलाते हुए दिखता। कभी बड़बड़ाते हुए। उठकर उसने एक बार घर के अंदर जाने की भी कोशिश की थी। गेट भी बजाया। सरोज ने दरवाज़ा नहीं खोला जब खोला, दरवाज़ा खोलते ही जैसे ही अंदर की तरफ विष्णु ने कदम बढ़ाए, धक्का दे सरोज ने बाहर की तरफ धकेल दिया," निकल जा घर से। इस घर में चोरों के लिए कोई जगह नहीं है। यहाँ आया तो टाँगे तोड़ दूँगी।"
जेवर से इतना प्रेम या फिर ये सिर्फ एक बहाना था। अच्छा मौका था, जिसे सरोज ने सही समय पर भुना लिया और रामेश्वर को भी ये कहकर समझा दिया," कहाँ जाएगा, यहीं बैठा है घर के बाहर। जब तक कड़ी सजा नहीं दी जाएगी, तब तक ये नहीं सुधरेगा। आप क्या चाहते हैं? जब हम मर जाएं तो दुनिया वाले से पीट-पीटकर ही मार डालें। कम से कम इस लायक तो हो कि खुद को संभाल सके।" पिता ने अपनी कोमल ह्रदय से एक बार बोल दिया," कुछ खाने के लिए दे देती सरोज।" झूठ बोलते हुए सरोज ने हामी भरी," आप क्या समझते हैं? मैंने नहीं दिया होगा? आपके कहने से पहले ही, मैंने आदित्य के हाथ भिजवा दिया। पर आप मत जाइएगा, आप कमजोर पड़ जाएंगे उसके सामने। कहे देखती हूँ ये अच्छा मौका है उसे सुधारने का। इतनी ढील सही नहीं, आपकी ढील ने ही बिगाड़ दिया उसे।"
चाची ने चाय बिस्कुट भी खिला दिए थे विष्णु को, शाम हुई तो खोका बंद करने का समय हो गया। चाची ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा," बेटा मेरा ही कोई ठिकाना नहीं है। मैं ही अपनी पेट के लिए यहाँ खोका लगाती हूँ। अपने बेटा बहू के घर में मेरे लिए ही जगह बड़ी मुश्किल से है, मैं तुझे कैसे ले जाऊँ? अपना ध्यान रखना मेरे बच्चे। मैं सुबह फिर आऊँगी।" कहकर चाची चली गई। अंधेरा होते ही वहाँ से खड़ा हो विष्णु पार्क के एक बेंच पर जाकर बैठ गया। जब रजनी को गेट के सामने विष्णु नजर नहीं आया तो वो उसे ढूँढने के लिए बाहर आई। पूरी गली में छान मारने के बाद विष्णु को बेंच पर लेटे हुए देखा। उसके पास जाकर रजनी ने पूछा, " तुमने कुछ खाया?" आँखें खोलते हुए उसने कहा," नहीं, मुझे भूख लगी है।" दौड़ती हुई रजनी दो रोटी अपने हाथ में दबाए विष्णु के लिए पार्क में ही ले आई। रोटी के टुकड़े खाते हुए विष्णु ने रजनी से कहा," रजनी तुम माँ से कहो ना, मैंने चोरी नहीं की। मुझे घर के अंदर आने दे। मुझे रात में डर लगता है, भूत से और गली में कुत्ते भोंकते हैं।"
रजनी ने अपनी नजरें चुरा लीं। उसके अपराधबोध ने उसे वहाँ ज्यादा देर तक रुकने नहीं दिया। रात को सो भी नहीं पाई। सुबह तक वो निर्णय कर चुकी थी रामेश्वर जी को सब कुछ बता देगी। सुबह उठते ही सबसे पहले पार्क गई पर पार्क में कोई नहीं था। आगे पीछे वाली सारी गालियाँ उसने छान मारी। रास्ते में रामेश्वर अंकल भी दिखे, शायद! अपने बच्चे को ढूँढ रहे थे पर वो कहीं नहीं था।
दिन गुजरते चले गए और उसके मिलने की आस और कम होती चली गई। पिता की आँखें पथरीली हो चुकी थीं। इस ग़म ने उन्हें और कमज़ोर बना दिया। काश! उन्होंने अपने बेटे को ना मारा होता और अपनी पत्नी की बातों में ना आए होते तो आज उनका अनभोर बालक उनके पास होता। जाने किस हालत में कहाँ होगा? वो तो दुनियादारी जानता तक नहीं। ऐसे में रजनी अगर सच्चाई बता देती तो रामेश्वर जी कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। उन्होंने ऐसे अपराध के लिए अपने पुत्र को दंडित किया, जो उसने किया ही नहीं। रजनी के अंदर रहने वाली प्रेमिका बहुत स्वार्थी थी, उसने उसे मना ही लिया, अब वो है ही नहीं तो उसका पक्ष रखने का क्या फायदा। लेकिन रजनी को अक्सर वो रोता हुआ चेहरा अपने सपनों में दिखता।
आदित्य के आज, कल और परसों जैसे वादे, वादे ही रह गए, अब वो साकार होते नहीं दिखते थे।वो जब भी आदित्य से कहती माँ और पिताजी मेरे लिए लड़का ढूँढ रहे हैं तो हँसते हुए कहता, तो कर ले ना शादी। उसकी इस बात पर वो खिज जाती थी। रास्ते में मिलता तो दूर से ही रास्ता बदल देता। जहाँ तक हो रजनी को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश और दिन रोज और लड़कियों के साथ जुड़ते उसके नाम कहीं ना कहीं ये एहसास दिला चुके थे कि प्यार के नाम पर उसके साथ केवल धोखा ही हुआ है। बहुत देर से सही पर चीजें समझ आने लगी थीं। और जब अंजलि ने ये बताया कि उसकी गली की एक लड़की से रजनी के बारे में आदित्य ने ये कहा कि रजनी में रखा ही क्या है? तो इस बात ने अंदर तक चीर दिया था रजनी को। शिकायत भी किससे करे? अपनी ग़लतियों की फसल जो बोई थी खुद ही कटनी थी। फिर एक दिन वो आया जिस दिन ये भ्रम भी टूट गया, शायद! जैसा मैं सोचती हूँ ऐसा ना हो क्योंकि ये तो प्रकृति के नियम के भी खिलाफ है, हम किसी से प्रेम करें और वो केवल खिलवाड़, जब रजनी ने सुना कि आदित्य का रिश्ता एक पैसे वाले घर में हुआ है। जहाँ से उसे दहेज की मोटी रकम भी मिलने वाली है। टूटे हुए दिल से रजनी ने आदित्य से जवाब भी माँगा था। कितनी आसानी से आदित्य ने ये कह दिया," प्यार तो पागल मैं तुझसे ही करता हूँ। शादी किसी और से होने से क्या प्यार कम हो जाता है? मैं हमेशा तुझे ऐसे ही प्यार करूँगा।" प्यार में माना अंधी हो चुकी थी रजनी लेकिन इतनी बड़ी भी बेवकूफ़ नहीं थी, वो किसी खिलौने की तरह इस्तेमाल होती चली जाए। रजनी ने भी हाँ कर दी शादी के लिए और शर्त रख दी जल्दी से जल्दी उसे शादी करनी है। आदित्य की शादी से पहले वो अपने ससुराल जा चुकी थी।
आज पूरे बीस दिन बाद नावेल को पूरा पढ़ पाई थी रजनी। चलो! नावेल में तो प्रेम कहानी का सुखद अंत हुआ और प्रेमिका ने धोखा भी नहीं खाया। सुखद अंत वाली प्रेम कहानियाँ अच्छी होती हैं जो दिल को तसल्ली पहुँचाती हैं। और प्यार से विश्वास भी नहीं उठने देती पर ये शायद कहानियाँ ही होती हैं और ऐसे प्यार का प्रतिशत समाज में बहुत ही कम देखने को मिलता है। कहानियों, पिक्चरों में हम वही सब पढ़ना चाहते हैं, वही सब देखना चाहते हैं जो कभी हम अपने जीवन में नहीं कर पाते "सुखद अंत"।
कोल्हापुर भी आने ही वाला है। बच्चों को उठा देना बेहतर होगा। खुद हाथ मुँह धोने के लिए उठी, बाहर तक पहुँची तो गेट पर बहुत भीड़ थी। सभी लोग आपस में कुछ विचार विमर्श कर रहे थे। उन लोगों के बीच पहुँचकर बात जानने की कोशिश की रजनी ने ,"क्या हुआ भाई साहब?"
"कुछ नहीं बहन जी कोई भिखारी है शायद। रात की ठंड में कुकडकर मर गया।"
"ये तो बड़ा दुखद हुआ। अगला स्टेशन कोल्हापुर है, तो वही पुलिस स्टेशन में शिकायत कर देंगे।" दूसरा व्यक्ति बोला।
"रात तक तो जिंदा था। मैंने देखा था।"रजनी बोली।
एक आदमी ने बीच में बात काटते हुए कहा," अपने खाने से मैंने इसे खाना भी दिया था। मेरे पास खाना माँगने आया था।"
"क्या करें भाई, जीवन ही इतना होगा।" पंडित जी ने माला फेरते हुए जवाब दिया। एक सरसरी सी नज़र रजनी दौड़ाना चाहती थी भिखारी पर लेकिन ढंग से चेहरा देख नहीं पाई। थोड़ा विचलित हो गया था मन। ऐसा मार्मिक दृश्य देखकर निश्चित ही किसी का भी हो जाएगा। बच्चों को जल्दी उठाते हुए कहा," चलो नानी का घर आ गया।" गाड़ी स्टेशन पर रुक गई। अपने सामान को उठाती हुई दोनों बच्चों का हाथ पकड़े रजनी गेट की तरफ बढ़ी, वहीं कुछ पुलिस वाले उस भिखारी को उठा रहे थे कि उसका कंबल उसके ऊपर से गिर गया। एक तरंग तेज गति से ऊपर से लेकर नीचे तक रजनी के तन-बदन में दौड़ गई।" विष्णु" ये विष्णु है। कैसे भूल सकती है, उस चेहरे को जो हर रात सपने में आकर उसका अपराध याद कराता है। काश! उसने उस दिन सच बता दिया होता।
पुलिस वाले ने कहा, " पता नहीं कौन है? कोई अता-पता कुछ नहीं? लावारिस है।" रजनी अपना सामान और बच्चे छोड़कर वहीं स्टेशन पर बैठ गई," मैं जानती हूँ इसे। मैं जानती हूँ। मैं इसकी अपराधी हूँ। मैंने तुम्हें कितना ढूँढा विष्णु? मैं तुमसे माफ़ी माँगना चाहती थी। मैं सबको बताना चाहती थी कि चोरी तुमने नहीं की थी। तुमने मुझे एक मौका दिया होता? तुम रूके क्यों नहीं उस रात? कहाँ चले गए थे, वहाँ से? मैं आई थी तुम्हें ढूँढने।" पुलिस वालों का हाथ पकड़ते हुए रजनी ने कहा," ये लावारिस नहीं है। इसके पिता जी जिंदा हैं, इसको एक नजर देखने के लिए । मैं जान चुकी हूँ विष्णु ऐसा सत्य जो किसी का जीवन बचा ले उसे किसी कीमत पर नहीं छुपाना चाहिए।"
