डिलीवरी ब्वॉय
डिलीवरी ब्वॉय
शहरों में अजीब रवायत है, हर आदमी अपनी सर्विस में खड़े आदमी का बॉस है। बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग, बीपीओ या फिर कॉल सेंटर, फलक्चुएटिंग वर्किंग आवर्स ने इन शहरों में एक नया वर्ग खड़ा किया है। खुद को कॉर्पोरेट कल्चर का हिस्सा मानता यह वर्ग समझ नहीं पाता कि वह वास्तव में एक नौकर भर है जो दूसरों को अमीर बनाने के लिए अपनी सारी स्किल्स की एक कीमत वसूल कर रहा है। उसे समझ नहीं आता कि वह असल में किसी कॉर्पोरेट कल्चर का हिस्सा नहीं है।
'थर्टी मिनट्स ऑर फ्री।' सलिल को उस ओर से आवाज़ आई।
'वेल ! थर्टी मिनट्स !' सलिल ने आर्डर कम्पलीट करते हुए कहा।
हर बार डिलीवरी बॉय लेट हो जाता था। अमूमन दस मिनट लेकिन कभी-कभी पंद्रह या बीस मिनट्स की देरी हो जाया करती थी।
आज वह आफिस से लेट आया था। काफी दिन हुए उसकी सेल ढंग से नहीं हो पा रही थी इसलिए आज बॉस ने उसे डांट दिया था।
'सलिल थ्री मोर डेज ऑर एल्स यू आर फ्री।' पता नहीं यह धमकी थी या फिर इसमें सच्चाई भी थी, लेकिन जो भी था अच्छा नहीं था।
घड़ी की टिक-टिक यह इशारा करने के लिए काफी थी कि वक्त दौड़ रहा है।
घड़ी की इन्हीं सुइयों पर किसी और की भी नज़र थी। टिक-टिक। उसकी इस पर नजर ही नहीं थी बल्कि उसका वास्तव में इससे कम्पटीशन था। अठारह सौ सेकण्ड्स की इस रेस में उसके पास हारने का भी विकल्प नहीं था।
सुबह से ही उसका मूड खराब था। अपनी बाइक पर यह बड़ा सा डब्बा लाद कर जितनी भी जगह गया हर जगह न जाने कैसे लेट पहुंचा। लड़की अधनंगी ही बाहर चली आई थी। आर्डर के बाद ही ढंग के कपड़े पहन लेती तो कुछ बिगड़ तो नहीं जाता, लेकिन नहीं। सामने बड़ी बड़ी आँखें किए, एक आदमी पैग लगाता हुआ सलिल को घूर रहा था। पिज़्ज़ा हाथ में लेती हुई एक औरत बाहर निकल कर आई और उसने पूछा," खाना नहीं खाओगी क्या?"
" ओह, शैटअप माॅम।" कहती हुई वह अंदर चली गई। आदमी ने एक मूंगफली उठाई और अपने बड़े से मुँह में डाल ली। शायद उसका पिता था।वो सच में समझ नहीं पाया था, बेटी ने माँ से कुछ कहा।
चलो, एक जगह तो टाइम से पहुँचा।
समय दौड़ रहा था, लेकिन दिल्ली में ट्रैफिक जाम हो तो बाइक वाले भी जल्दी नहीं निकल सकते। ऊपर से ये पॉल्युशन। पांच मीटर भी न दिखाई पड़े, लेकिन लोगों को पिज़्ज़ा तीस मिनट्स के अंदर ही चाहिए, अजीब बात है।
टिक... टिक। तीन मिनट्स बचे थे लेकिन एड्रेस अभी दूर था। बड़ा सा हेलमेट लगाए वह खुद को सुअर सा लग रहा था। उसे खुद की सोच पर खुद ही हंसी आ गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस पर सुअर ज्यादा सूट करता है या बेवकूफ़?
फोर्थ फ्लोर पर आर्डर डिलीवर करने से पहले उसे अपने फेफड़ों में पूरी हवा भर लेनी थी।बडी इमारतों में रहते लोग, ब्रांडेड कपड़े पहन कर चार लोगों के बीच में टशन मार लेते हैं और अपटूडेट बन कर यह सोचते हैं सुनील भारती मित्तल या फिर मुकेश अम्बानी इत्यादि उन्हीं की बदौलत चलते हैं यह क्या कम है? डिलीवरी बॉय फिर मुस्कुराया। उसकी पहाड़ी आंखें और सिकुड़ गईं, क्या वह भी सोचता है 'उसकी वजह से ही उसका पिज़्ज़ा चैन चलता है?'
रूम नंबर 5, फ्लोर नंबर 4। यही एड्रेस था। वह रेस हार गया। आज फिर देर हो गई। यहां से पैसे नहीं मिलेंगे; पहले ही सोच चुका था। दरवाजे की घंटी बजाई, कई बार बजाने के बाद दरवाजा खुला।लगभग 70 साल के एक वृद्ध व्यक्ति ने दरवाजा खोला, अगर चलने में इतनी दिक्कत है तो, उसके हाथ में डंडा होना चाहिए। जैसे उसके गाँव में हर बूढ़ा पकड़ता है, लेकिन यह स्टैंडर्ड के खिलाफ है। शहरों में बूढ़े लोग डंडा पकड़े कम ही दिखते हैं? पानी जैसे फर्श पर डंडे से चल पाना मुश्किल है। जो डंडा सहारा देता है, वही डंडा गिरने का कारण भी बन सकता है। कमजोर बीनाई होने की वजह से उसने बार-बार घड़ी को चेक किया। 15 मिनट लेट का वो अंदाजा नहीं लगा पाया या यूँ कहिए कि वो इतना कठोर नहीं बना था, शहर में रहते हुए भी, जो पंद्रह मिनट के लिए, किसीके पैसे काटने पर उतारू हो।
यही उसकी लास्ट डिलीवरी भी थी, इसके बाद आज का काम तो खत्म था। दूसरे दिन का इंतजार था; आखिर उसे तीन दिन का नोटिस पीरियड मिला था। आज पहुँचाए जाने वाले पिज्जाओं में से ,उसने आधे से ज्यादा की सफलतापूर्वक डिलीवरी की थी। ये उसका दुर्भाग्य ही था; कभी उसे कोई टिप नहीं मिली। ऐसा नहीं है कि उसने कभी कोई भी पिज्जा टाइम से पहले नहीं पहुंचाया है। वहीं मोहन हर बार शेखी बघारकर कहता, आज सौ रुपए मिले, आज ₹दो मिले और उन्हीं सौ ₹दो के बलबूते वह हर रात पार्टी करता नजर आता। तनख्वाह के बाद कुछ ऊपर से मिले, इनाम की खुशी ही अलग होती है। आज तक वो समझ नहीं पाया था कि मोहन अंदर ऐसा क्या है जो मेरे अंदर नहीं है; या ऐसा कौन सा हुनर है जिसे उसे सीखना चाहिए? गोरा रंग,अच्छा चेहरा मोहरे, हष्ट पुष्ट और टूटी फूटी अंग्रेजी बोलने में सक्षम मोहन के पास और तो कोई गुण नजर नहीं आता था। हर छोटी छोटी बात पर उसका शेखी बघारना, कहीं से भी उसकी किसी निपुणता का कारण नहीं था लेकिन मोहन कभी बाज नहीं आता था। ये कहिए कि हमेशा नीचा दिखाता था।उस दिन ये भेद भी समझ आ गया, जब शाॅप पर आई एक लडकी ने, शक्ल देखकर मोहन और उसमें से मोहन को ऑडर देने के लिए चुना। तब ये शक्ल और आचरण का भेद भी जाता रहा; माँ की ये बात धोखा थीं, आदमी शक्ल से चाहे जैसा हो? उसकी पहचान व्यवहार से होती है।
तीसरा दिन ही खराब था। सुबह ही पुराने स्कूटर का टायर पंचर हो गया। क्या जीवन में धक्के खाना ही लिखा था? हजारों सपने लेकर आया वो सड़कों पर धूल ही खाता फिरता है; छोटी सी नौकरी के लिए। कहीं नौकरी मिले ना मिले पर मालिक के कहने से पहले ये नौकरी छोड़ देगा ;जो उसकी इज्जत और शान के बिल्कुल खिलाफ है। लेट पहुंचने पर मालिक के साथ साथ, अनजान लोगों की भी डांट सुनो और वे जब दरवाजे मुँह पर फेंक कर मारते हैं; तो रही सही इज्जत उनकी चौखट पर ही उतर जाती है।
112 डी इस बिल्डिंग में लिफ्ट खराब है, वो भी पंद्रहवाँ माला। मां जाने क्यों कहती है बार-बार, कमजोर होते जा रहे हो? मां का तो काम ही है, हर बार पूरे शरीर को टटोलकर कहना, कमज़ोर दिखते हो। यहां एक बार पहले भी आ चुका है। दरवाजा चार बार बजाया, बहुत लड़खड़ाते हुए, ग्लास हाथ में पकड़े, एक अधेड़ उम्र की औरत ने दरवाजा खोला। जो दरवाजा खोलते ही नशे में चूर गिर पड़ी। उसे इस तरह गेट पर बेहोशी की हालत में छोड़कर आना मानवता के खिलाफ था।सलिल ने उसे हाथ के सहारे से उठाया; उसके कपड़े व्यवस्थित कर पास के सोफे पर लिटा दिया। बेहोशी की हालत में वो सलिल का हाथ पकड़े बड़बड़ा रही थी," रवि मुझे छोड़कर मत जाओ। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी। देखो, आयुष मेरा भी बच्चा है। मैं उसकी मां हूँ, मैं बिल्कुल अकेली हो जाऊंगी। मैं तुम दोनों से बहुत प्यार करती हूं।मैंने तुम्हारा और आयूष की पसंद का पिज्जा मंगाया है।" वहां रुककर उसके दुख को कम नहीं किया जा सकता था और फिर किसी और जगह भी तो पहुंचने की जल्दी थी।वो उनमें से भी नहीं था, जो मौके का फायदा उठाते हैं।
घर छोड़ते समय मन बहुत भारी था, क्या कमी है? रवि के पास आलीशान घर है। नशे में कह रही है, तो प्यार ही करती होगी। प्यार करने वाली बीवी, बच्चा फिर क्यों नहीं रहना चाहता अपने परिवार के साथ? खैर छोड़ो मुझे क्या? पैसा न हो सिर्फ पैसे ही की कमी खलती है, लेकिन उसके आते ही और परेशानियां भी होती हैं; जिनको सलिल रोज ही सुलझाने की कोशिश करता है, हर बड़े घर के दरवाजे पर खड़ा होकर। कोई रहन-सहन में अंतर नहीं एक शिक्षित और अशिक्षित, अमीर-गरीब के व्यवहार में; जो लड़ाईयां उसके गाँव के पड़ोसी रामकिशन और सुखराम में होती हैं, वही हाल शहरों में भी है लेकिन अंतर बस इतना ही है, गाँव की लड़ाई का चश्मदीद गवाह पूरा गाँव होता, लेकिन यहाँ कोई किसी के पाप पुण्य का साक्षी नहीं बनता।दिन और रात के उजाले में सब काला चश्मा पहने घूमते हैं। इतने कड़वे अनुभवों से भरी, नौकरी छोड़कर कोई ऐसी नौकरी पकड़ लेना बेहतर है; जहां इधर-उधर भाग दौड़ ना करनी पड़े। अपने मन में सलिल इस्तीफ़ा तैयार कर चुका था।
नाइंथ फ्लोर, एक लड़की छोटी सी पार्टी ड्रेस, चेहरे और होठों पर लगी जरूरत से ज्यादा लाली। अच्छी किस्म की लाली भी, उसके चेहरे के भावों को छुपा नहीं सकती थी। अंदर शायद दो आदमी और थे। उसकी मुस्कुराहट, इस बात की गवाह थी, वो आज रात दो अजनबी इनसानों के साथ थी। डिलीवरी लेते समय वो ऐसे मुस्कुराई, जैसे वो सलिल को ये दिखा देना चाहती थी; हाँ तुमने सही समझा, मैं वही हूं ,जो तुम समझते हो; लेकिन मुझे कोई परवाह नहीं है। फर्क नहीं पड़ता इससे कि मैं क्या हूँ? पैसा, जिसे तुम अभी कुछ समय पहले नकारते रहे थे, बहुत बड़ी चीज है। नौकरी छोड़ने के मूड में तैयार सलिल अचानक इज्जतदार बन चुका था। जिसकी इज्जत अभी तक दो कौड़ी की नहीं थी, वह लिफ्ट से उतरते समय, शीशे से नज़रे मिला, गर्व अनुभव कर रहा था।
सुबह दिन चढ चुका था। सब अपने काम पर लगने को तैयार थे।ऑफिस के फोन की घंटी बजी, किसीने डिलीवरी बाॅय का नाम पूछा; दूसरी तरफ कोई महिला थी। कुछ समय बाद मैनेजर ने सलिल को पुकारा," तुम्हारे लिए फोन था।" अच्छे का अंदेशा तो उसे कभी नहीं था। बुरी खबर ही सुनते आया था। कहीं ऐसा ना हो, इसबार नौकरी से हाथ धोना पड़े ?
मैनेजर ने मुस्कुराते हुए कहा," तुम्हारे लिए टिप भेजी है किसीने। तुम्हारे व्यवहार से प्रसन्न होकर।"
सलिल सोच में पड़ा था, ऐसा कौन है? तभी मैनेजर ने जवाब दिया," कल 112 डी में पिज़्ज़ा देने गए थे ?" सलिल के आँखों के सामने महिला का चेहरा घूम गया, और उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आई। व्यवहार की भी कीमत है।