आदर्श पुरुष

आदर्श पुरुष

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"आशुतोष तुम्हें अंदर बुलाया है, सर ने।"

" अब क्या काम आ गया ?"

" पता नहीं।" गेट के बाहर खड़े होकर आशुतोष ने परमिशन मांगी, मे आई कम इन सर ?"

" आप कल क्यों नहीं आए ?"

" सर बिटिया की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए नहीं आया।"

" तो छुट्टी परमानेंट क्यों नहीं ले लेते ? यार! तुम महीने में चार दिन तो छुट्टी कर लेते हो। इतना पेंडिंग वर्क है। आज बिना खत्म किए मत जाना।"

" जी सर।" आशुतोष के केबिन से बाहर निकलते हुए उसके चेहरे को देखकर, विनोद और आशीष के चहरे पर मजाकिया मुस्कुराहट खिल गई। आशुतोष भी समझता है, सर के कान किसने भरे होंगे ? अंग्रेजो की नीति को केवल अंग्रेजो की नीति का ही नाम दिया गया है, 'फूट डालो शासन करो' लेकिन ये नीति तो हर जगह लागू होती है। एक अनपढ़ इनसान भी जी-जान से राजनीति करता है, अपने आपको स्थापित करने के लिए। कहां नहीं है उसका प्रभुत्व, जब कोख से निकलने के बाद ही बच्चा राजनीति सीख जाता है कि अपनी मां को किस बात से खुश करना है ? क्या सुन कर वो खुश हो जाएगी और क्या सुनने से उसे गुस्सा आ सकता है ? बॉस तो बॉस है उसकी बात माननी ही पड़ेगी और रात दस बजे तक काम भी करना पड़ेगा।नौ बजे आशुतोष की फोन की घंटी बजी, अंजलि जो उसके एक घंटा लेट होने पर प्राईवेट डिटेक्टिव की तरह फोन घुमाती है।

" कब तक आओगे ?"

" लेट हो जाऊंगा।"

" कितनी लेट ?"

" दस बजे निकलूंगा ऑफिस से।"

" तो फोन कर देते, एक।"

" भूल गया यार, काम बहुत है ऑफिस में।"आशुतोष अंजली के सवालों से परेशान होकर गुस्से में चिल्लाया।

" अच्छा ठीक है, पूछ रही थी गुस्सा क्यों होते हो ? मुझे चिंता हो जाती है ना इसलिए।" आशुतोष समझता है अंजलि के मन की स्थिति, वो फिक्र करती है लेकिन कभी कभी गुस्से में दिमाग और दिल कुछ भी सोच लेता है। जिस दिन लेट होने पर अंजली फोन नहीं आता, उस दिन आशुतोष को कमी खलने लगती है कि आज अंजलि ने फोन करके पूछा भी नहीं ? रास्ते में बाइक का टायर पंचर हो जाए तो रात के 10:30 बजे उसे दो किलोमीटर तक खींचना, जब घर पहुंच जाओ तो सभी की आशाओं पर खरे उतरते हुए उनके पूरी दिनचर्या को सुनना, आशुतोष का रोज का काम है।

"आशू, बेटा; तेरा साला आया था आज तो।मैंने भी पूछ लिया रास्ता कैसे भूल गए ?" माँ ने आशुतोष को इस लहजे में बताया कि तू घर पर हो या ना हो, मैं हर रिश्ते को बखूबी संभाल सकती हूं और माँ चेहरे पर एक गर्वीली मुस्कान थी कि उनका रौब आज भी कायम है।

आशुतोष ने नजर उठाकर अंजलि की तरफ देखा तो हर बार की तरह, उसकी आँखों में ज्यादा देर तक देखना, आशुतोष को मुश्किल लगा।

खाना खा पीकर सोया ही था कि पिताजी का रोज वाला काम फिर शुरू हुआ। एक बजे उन्होंने चिल्लाना शुरु कर दिया," आशू, आशू" थककर आई हुई गहरी नींद, तीन आवाज निगल गई। भागकर पिताजी के कमरे में पहुंचा तो वही रोज वाला काम," बाहर वाले मेन गेट का दरवाजा चेक कर लिया ? ताला लगाया है ?"

" हां पिताजी लगा दिया।"

" एक बार चेक करके आओ।"

" पिताजी मैं लगा कर सोया था।"

" दोबारा खींचकर चेक करके आओ।"

" जी" दबे पांव बिना झिल्लाए आशुतोष अपने कमरे में जाकर सो गया। आज रात तो बस एक बार जगाया। कभी-कभी तो दो बार भी जगा देते हैं, वही ताला चेक करने के लिए और सफाई के प्रति उनकी बढ़ती रुचि, उसने तो सभीको परेशान कर रखा है। पड़ोसीयों से भी लड़ जाते हैं।

 दूसरे दिन रविवार था, तो सोचा एक दिन चैन का कटेगा लेकिन अब तो आशुतोष ने इसकी उम्मीद भी छोड़ दी है। अब रविवार का मतलब है, पूरे दिन झिकझिक में बिताना और अंत में एक डर पैसे की फिजूलखर्ची का। सुबह घूमकर लौटा ही था, रास्ते में पार्क के बाहर, पिताजी किसीसे बहस करने में लगे थे। उन्हें समझा-बुझाकर अंदर लाया तो पड़ोसी कोने में ले जाकर बोलता है," अंकल जी को समझाइए। पार्क क्या केवल उन्हीं का है ? हमारे बच्चों को खेलने नहीं देते। अरे! जरा सा एक फूल क्या तोड़ लिया, लगे डांटने बच्चों को।"

" भाई साहब समझिए पिताजी का बुढ़ापा है।" अस्सी साल की उम्र में पिता जी का दिमाग अजीब तरीके से काम करने लगा है।थोडी देर बाद ही टॉफी का छिलका बाहर रवि ने गिरा दिया, कई बार दादाजी के कहने पर भी उसने नहीं उठाया तो गुस्से में आकर बोल पडे," मेरी तो बात ही नहीं सुनता, आशुतोष बदतमीजी सिखा रखी है अपने लड़के को। मुहँजुबानी करता है। मुझसे से कहता है, बेकार के कामों में लगे रहते हो दादा जी आप। यही सिखा रहा है तू अपने बेटे को। नालायक निकलेगा एक दिन।आशुतोष ने गुस्से में एक थप्पड़ रवि के गाल पर मार दिया, वो नाराज हुए जाने कहां निकल गया। पूरी कलाॅनी के चार चक्कर मारने पर भी अंजलि उसे ढूंढ नहीं पाई। जब बिटिया ने बताया कि भैया बिल्डिंग की छत पर बैठा है तब जाकर सांस में सांस आई। अंजलि के चुप कराने के बाद भी ये बात आशुतोष के कान में पड़ ही गई," पापा हमेशा मुझे ही डांटते हैं। मेरी कोई गलती नहीं थी, वो रैपर मैंने फेंक दिया था, दादाजी हर बात पर चिल्लाते हैं।"

माँ की तो पूछिए ही मत, आज भी अंजलि अगर गलती से नमक ज्यादा डाल दे तो उन्हें ऐसा लगता है कि उनको मारने की साजिश है क्योंकि उनका बी पी हाई रहता है। बीस साल गुजरने के बाद भी माँ अंजलि को अपना नहीं पाईं। आज भी वो ऐसी स्थिति पैदा कर देना चाहती है कि आशुतोष अंजलि का मुंह ना देखना चाहे; पर ऐसा कैसे हो सकता है ? अंजलि के घर से आए लेन देन पर आज भी उनकी पैनी नजर होती है। कल ही तो अंजलि का भाई माँ के लिए एक साड़ी लाया था, जिसे कल से ही खोल खोल कर देख रही हैं और आज उनकी भजन मंडली की सदस्य आईं, तो लगी वही पुराना अलाप जापने, आज तक एक भी ढंग की साड़ी नहीं आई है इसके यहाँ से। हमने तो ये सोचा था, कम से कम कुछ तो हाथ पर रखा करेंगे, खाली हाथ जाती है और खाली हाथ ही वापस आ जाती है। ये साड़ी ना साड़ी की जात, ये देकर गया है भाई कल। हमारा आशुतोष राजी हो गया; वरना तो ऐसे बड़े-बड़े रिश्ते आए थे हमारे इकलौते बेटे के लिए।माँ कोशिश भी नहीं करती , थोड़ा आवाज को धीरे करके बोला जाए; ऐसे मामले में तो वो अपने गले में लाउडस्पीकर लगा लेती हैं, किसी तरह अंजलि के मन को ठेस पहुंचे।

अंजलि कहती तो कुछ नहीं लेकिन उसकी आंखें सौ सवाल कर देती हैं और उसकी आंखें देखकर जानते हुए भी पूछना तो जरूरी है, ऐसा क्या हुआ जो तुम्हारी आंखों में आंसू हैं ? उसको खुश रखना आशुतोष का दायित्व है," देखो ना आशुतोष, तुम्हारी मां मेरे घरवालों का पीछा ही नहीं छोड़तीं, कितना तो करते हैं। शादी के बीस साल बाद भी किसी चीज में अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोडते लेकिन उनकी मांगें आज तक पूरी नहीं हुई। क्या मैं उनकी पूर्ति नहीं करती ? आज तक मैंने उनका कौन सा कहा नहीं माना ? कभी उन्हें पलट कर जवाब नहीं दिया उन्होंने जो कहा मैंने वैसा ही किया, तो क्या लेनदेन बहू से ऊपर है ? उन्हें बहू से कोई मतलब नहीं,जो अपने सारे फर्ज पूरी ईमानदारी से पूरा करती है, उसकी उनकी नजर में कोई कीमत नहीं ?

"माँ तुम क्यों अंजलि के पीछे पड़ी रहती हो ? अगर तुम्हें साड़ी ही चाहिए और तुम्हें ये पसंद नहीं है, तो मुझसे कहो, मैं लाकर दूंगा। कितनी साड़ी चाहिए तुम्हें ?"

" हम तो मुंह में से जुबान नहीं निकाल सकते, पहले तो तेरे पिताजी ने किसी के सामने बोलने नहीं दिया, अब बेटा भी बोलने नहीं देता। अरे! मैंने कब कहा कि मुझे साड़ी पसंद नहीं है। दो चार बातें बढ़ा चढ़ाकर जाकर बेटे को सिखा देती है।तू खुद ही देख बुढापे में इतने चटक रंग पहती अच्छी दिखूँगी ?"

" क्या मां, उसने मुझे कुछ नहीं सिखाया ?"

" मैं क्या जानती नहीं हूं, पूरे दिन तेरे कान भरती है। हमारे समय में तो कभी ऐसा नहीं होता था।"

" आपका समय अलग था, ये समय अलग है और आने वाला समय अलग होगा। सबकी परिस्थितियां एक जैसी नहीं रहती मां। समय बदलता रहता है और बदलाव ही प्रकृति का नियम है, तुम ये बात क्यों नहीं स्वीकार कर लेतीं ?"

" मैं ही सब स्वीकार करूं और तेरी बीवी वो मां से बढ़कर हो गई। अब मां-बाप तो बोझ ही लगेंगे, इस उम्र में।"

 आशुतोष ने चिल्लाते हुए कहा," मां तुम बेकार की बातें करती हो, ऐसा तो मैंने नहीं कहा।"

" और क्या और क्या कहेगा ? मैं ना बोलूंगी या फिर घर छोड़ कर चली जाती हूं। ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी।कुछ कह नहीं सकते, गूंगे बहरे बन कर रहो तो इस घर में रह सकते हैं।"

" आप क्यों, घर से निकलकर जाएंगी मैं चला जाता हूं।" गुस्से में आशुतोष घर से निकल गया, सोच विचार में डूबा पार्क के बैंच पर बैठा है,क्यों मैं किसीको संतुष्ट नहीं कर पाता ? मैं थक चुका हो इस दौड में दौडते हुए। रामकिशन अंकल मुस्कुराते हुए आए, आशुतोष के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा," क्या हुआ परेशान हो ?"

" नहीं अंकल।"

  रामकिशन जी एक ठाहाका मारते हुए पास बैठे और बोले," तुम्हारे चेहरे से तो लग रहा है, परेशान हो; क्या हुआ ?"

"अंकल मुझे ऐसा लगता है, मैं हर क्षेत्र में फेल हूँ, ना ही एक सफल पति हूं, ना ही पिता, नहीं पुत्र। किसी भी रिश्ते में मैं सफल नहीं हूं।"

अंकल धीरे से हंसे और बोले," ऐसा तुम क्यों सोचते हो, सफल की क्या परिभाषा है तुम्हारी नजर में ? किसीको पूरी तरीके से संतुष्ट कर देना वो किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं है। आदर्श स्थापित करना बहुत मुश्किल होता है, किसी भी रिश्ते के लिए। तुम अपना सबसे बेहतर हर रिश्ते को देते हो। हर किसीको समझाने बुझाने की कोशिश करते हो, हर किसी रिश्ते में, वही तुम्हारे आदर्श होने की सीमा है। तुम इसलिए अपना कर्म मत करो, तुम्हें किसीको खुश करना है। तुम इसलिए अपना कर्म करो कि तुम्हें खुद को संतुष्ट करना है, तुमको अपनी नजर में अपने आपको एक आदर्श व्यक्ति स्थापित करना है। मुझे देखो, मैंने अपने जीवन के पच्चास साल एक आदर्श किरदार का रूप धारण करने में निकाल दिए। मैं भी उस गली से गुजरा हूं, जहां तुम आज खड़े हो लेकिन जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, तो मैं संतुष्ट होता हूं, मैंने अपनी तरफ से अपने किरदार को सौ प्रतिशत निभाया है। वही मेरी इस मुस्कुराहट का कारण है। किसी भी चीज की परिभाषा वही होती है, जो हम निश्चित करते हैं। तुम अपने सारे दायित्व पूरे करो, जिससे आगे चलकर; जब तुम मेरी जगह पर बैठे हो, तो पीछे मुड़कर देखने पर तुम ये कह सकते हो, मैं एक आदर्श पुरुष हूं।

आशुतोष के फोन की घंटी बजी,"कहाँ हो ? मम्मी खाना नही खा रहीं।"

"आता हूँ, अभी।"

"नमस्ते अंकल; चलता हूँ ।"आशुतोष बैंच से उठा और चलते हुए रुककर रामकिशन जी पैर छूते हुए बोला "सच बुजुर्ग बरगद का पेड़ होतें जिनकी छाया; धूप चाहे कितनी तेज हो उसे बेअसर कर देती है।"


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