उपहार

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"कभी घर पर ध्यान नहीं देते। ना ही बच्चों के पढ़ने लिखने पर। उन्हें क्या करना है भविष्य में ? आज तक तुम्हें ये नहीं पता कि लड़का कौन सी कंपनी में नौकरी कर रहा है। लड़की का ब्याह, शादी करना है और इनकी फिजूलखर्ची, उन पर तो तुम कभी कोई ध्यान नहीं देते। बस मैं ही सोचूँ सबके लिए, मेरा ही काम है, सारी जिम्मेदारियाँ निभाना।मैं ही राशन लेकर आऊँ। मैं ही सब्जी लेकर आऊँ। अगर! मैं ना रही तो इस घर का क्या होगा? कौन ध्यान रखेगा? चारों तरफ सामान फैला हुआ है। कोई उठा कर रख नहीं सकता, मैं एक समान उठाती हूँ, चार फैला देते हैं।" 

"अरे !क्या हुआ सावित्री क्यों सुबह-सुबह गुस्सा हो रही हो?" शांत भाव से दीनदयाल जी ने कहा।

"हाँ ! तुम्हें, गुस्सा क्यों आने लगा? गुस्सा तो उसी को आता है ना, जो कुछ काम करता है। ये सारा काम अगर किसी नौकरानी से कराओगे, पता है कितना पैसा लेगी ? मैं तो, फ्री की नौकरानी तुम्हें मिली हुई हूँ। मुझे पैसों की क्या जरूरत है। ना मुझे जेब खर्च ही चाहिए।"

" तुम नौकरानी कहाँ से आईं, तुम तो घर की मालकिन हो भाई।"

" बस, इन्हीं शब्दों के जाल में मुझे 30 साल से फसाकर रखा है तुमने, और मैं भी ऐसी बावली हूँ, तुम्हारी सारी बातें सच मान लेती हूँ ।"बिस्तर की चद्दर झाड़ते हुए सावित्री ने दीनदयाल जी को ताना मारा। "अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रख सकते हो ।डॉक्टर ने कहा है थोड़ा घूम कर आया करो। व्यायाम जरूरी है। जाते हो टहलने? नहीं बस चाय के साथ पेपर ही चाटते रहते हो। अपने घर में क्या हो कुछ होश नहीं, लेकिन दुनिया और राजनीति के बारे में तुम्हें सब पता होना चाहिए।" 

दीनदयाल जी अखबार के पन्नों को पलटते हुए बस जरा सा मुस्कुरा रहे हैं। अब कितने साल हुए साथ रहते, अपनी पत्नी की एक एक बात जानते हैं। सर पर आने वाले त्योहारों भार है। बोलती नहीं है तो क्या हुआ ? अखबार में से नजरें बचाए अपनी पत्नी को देखकर याद कर रहे हैं, उस लड़की को, जो डरी हुई सी, सहमी हुई सी कभी उनके घर में आई थी। वो जो एक इमली के कटारे से खुश हो जाया करती थी। जो दीनदयाल जी के सामने पडते ही किसी दरवाजे के पीछे छुप जाया करती थी। घंटों ढूंढने पर भी वो पूरे घर में कहीं नजर नहीं आती। उसे एक झलक देखने के लिए कितने बहाने से दीनदयाल जी रसोई में जाया करते थे, पर मजाल है जो नजर उठाकर देखती हो। गुलाबी रंग फबता था सावित्री पर। जब कभी खाने में दो रोटी ज्यादा खा लिया करते, तो चूल्हे से कैसे घूर कर देखती, मानो कह रही हो," खद्दू कितना खाएगा ?" उसका मायके जाना उन्हें हमेशा अखरता था लेकिन सावित्री के चेहरे को कभी देखकर ये महसूस नहीं होता, उसको विछोह का लेशमात्र भी दर्द होता है। कैसे उसके एक महीने मायके में रहने पर उसकी इतनी याद आती थी, एक पत्र लिखकर अपने गाँव से उसके गाँव तक साइकिल चलाकर, उसे देने गए थे। अपने मुँह को मटकाकर गन्ना चूँसते हुए जब उसने ये बोला," यहाँ आने की क्या जरूरत है, हमारे बाबूजी देख लेंगे तो पता है ना, कितना डाँटेगे तुमको ? कोई शर्म है कि नहीं।" बिना चिट्ठी लिए ही, वो उन्हें डाँटकर चली गई और वो खिसयाये देखते रह गए । कितने दुखी थे उस समय, अच्छा जीवन साथी नहीं मिल पाया।

 शरीर थोड़ा भर गया। अब बेडोल लगता है। हर दिन कमर और घुटनों का दर्द बुढ़ापे की ओर धकेल देता है। बालों में सफेदी आई है। ठंडा और गरम दांतों में लगता है। खट्टा तो खा ही नहीं सकती, डॉक्टर ने मना किया है। जाने क्यों सजना सवरना छोड़ ही दिया है। सिंदूर, बिंदी के अलावा कभी कुछ लगाती ही नहीं है।" कभी-कभी साड़ी की प्लेट भी बनाया करो मास्टरनी सी लगती हो।" तो बस एक गर्दन में झटका मार कर रहे जाती है, पर थोड़ा सा मुस्कुरा देती है।

"सावित्री, जाओ ! जरा अंदर से सुपारी सूट ला दो जरा बाहर कचैहरी तक हो आएं।"

झटके से सुपारी सूट टेबल पर रख सावित्री अंदर चली गई। दरवाजे पे खड़े होकर दीनदयाल जी ने आवाज लगाई," शाम हो जाएगी आने में।" बाहर तक सावित्री निकलकर आई। कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन घर से निकलते समय कुछ बोलना नहीं चाहती थी। इसलिए घूर कर रह गई।

आज तो कुछ ज्यादा ही देर हो गई। आठ बज गए। दीनदयाल जी को उम्मीद नहीं थी कि एक काम निपटाने में, कचहरी में इतना समय लग जाएगा और उसके बाद रवि मिल गया। दोस्त इतने दिन में मिले दो घंटों का पता ही नहीं रहा। अपनी सैंडल उतार अंदर कमरे की तरफ बढे और एक ग्लास पानी की माँग की," सावित्री एक गिलास पानी पिला दो।" सावित्री पानी का ग्लास लिए, मुस्कुराती हुई दीनदयाल जी के सामने खड़ी थी," इसकी क्या जरुरत थी।" साड़ी दिखाते हुए बोली," तुम्हें पता है ना हाथ तंग है? "

" हाँ, तंग है तो क्या हुआ ? तुम्हारा साल भर का त्यौहार है। तुम हमेशा करवाचौथ पर कोरा ही तो पहनती हो। हम क्या समझते नहीं हैं ?तुम बताती नहीं हो, पर ये भी तो जरुरी है।"

" जितने की साड़ी आई। इसमें घर की सारी लाइटें बदल जाती। बुढ़ापे में रिवाज इतनी भी जरुरी नहीं।"

" चल पगली, बुढ़ापे और रिवाजों का क्या संबंध ? तुम्ही मेरे घर का उजाला हो।" साड़ी की तह खोल सावित्री के कंधे पर डालते हुए दीनदयाल जी ने कहा " गुलाबी रंग बना ही तुम्हारे लिए है, आज भी फबता है तुम पर। देर से ही सही कभी-कभी मेरी वो पुरानी सावित्री मिल ही जाती है।"


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