Swati Gautam

Tragedy Inspirational

2.5  

Swati Gautam

Tragedy Inspirational

अभिमान

अभिमान

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"डॉ,डॉ!"

"अरे अंदर क्यों भागे चले आ रहे हो?" नंदिनी ने कंपाउंडर को बिना इजाज़त केबिन में आने के लिए डाँटा।

" मैडम, इमरजेंसी है, पूरा पैर फट चुका है आदमी का। खून रूक ही नहीं रहा।"

" तुम जानते हो राधेश्याम, यहां मरीज इतने हैं कि सभी को देखना बहुत मुश्किल है। अच्छा ठीक है, पहले उसे लेकर आओ।" बढ़े हुए बाल, जैसे किसी ने गोंद से चिपकाकर उनकी बत्ती बना दी हो, पीले दाँत, सफेद और काली बड़ी हुई दाढ़ी, कपड़े जगह जगह से फटे और नाखूनों में भरी बेतहाशा गंदगी। टूटे हुए पैर से बहता खून। हालांकि डॉक्टर खून देखकर भावुक नहीं होता। बरसों पहले की बात थी, जब नंदिनी किसी डैड बॉडी को देख कर काँप जाया करती थी जब सीनियर्स उसे कहते, लो चिमटी पकड़ो और दिल निकालो। अब तो बरसों हुए उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती। पर ऐसा नहीं है, उसके अंदर दया नहीं है। चाहे वर्किंग ऑवर कितने भी हो जाएं, सारे मरीजों को निपटाना वह अपना फर्ज समझती है। ज्यादा देर नहीं लगी, उसके भावों को बदलने में, क्रोध में राधेश्याम पर चिल्लाती हुई नंदिनी ने कहा," डॉ रस्तोगी को दिखाओ।" राधेश्याम भी नंदिनी के ऐसे व्यवहार को आज समझ नहीं पाया, वो तो उन डॉक्टरों में से है, चाहे स्पेशलिस्ट ना हो फिर भी स्पेशलिस्ट के अभाव में अपनी तरफ से ही दुनिया भर की जानकारी इकट्ठा कर मरीज का इलाज करते हैं।


समय से पहले ही आज घर आ गई। खाने की थाली लिए खोई खोई, कुछ खाया कुछ नहीं खाया। माँ तो माँ है आखिरकार पूछी बैठी," क्या हुआ, आज मन नहीं लग रहा, जल्दी आ गई, कोई परेशानी है?"

"माँ आपसे एक सवाल पूछना चाहती हूं?"

" हां पूछो?"

"आज एक घटना हुई अस्पताल में। एकदम बुरी हालत में, एक आदमी को कोई अस्पताल छोड़ गया। जब वह अंदर लाया गया, मैंने उसे देखा बढ़े हुए बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, मैले कुचैले कपड़े। कोई भी उसे एक नजर देखकर पागल ठहरा सकता था लेकिन वह पागल नहीं था। मुझे शायद किसी अनजान पर इतनी घृणा नहीं आती, जितनी मुझे उसपर आई और मैंने कंपाउंडर से कहा," बाहर जाकर बिठा दो या फिर डॉ रस्तोगी को दिखाओ। मैं इनका इलाज नहीं करूंगी। क्या मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था?" अपनी बेटी के मुँह से कभी ऐसी बात आजतक रश्मि ने नहीं सुनी थी, कि उसने कभी किसी भी मरीज के लिए, ऐसा कहा हो। वह रात को 12:00 बजे भी तैयार थी अस्पताल जाने के लिए। कुष्ठरोगी तक का इलाज उसने खुद अपने हाथों से किया है," क्यों उसके चेहरे में ऐसा क्या था?" माँ ने आश्चर्य से पूछा। नंदनी ने अपना सर माँ की गोद में रखते हुए कहा," माँ वह दिनेश है।"

क्या प्रेम की मियाद होती है? क्या एक समय के पश्चात वह धीरे-धीरे घटने लगता है? रश्मि ने तो अब तक यही सुना था कि प्रेम समय के साथ गहराता चला जाता है लेकिन उसका और उसके पति का प्यार कैसा था? जो शादी के चंद सालों बाद ही घटना शुरु हो गया। अभी समय ही कितना हुआ है ? लोग जीवन भर साथ रहते हैं और अगर एक भी दुनिया से पहले चला जाए, तो दूसरे का जीवन अधूरा होता है। अब तक तो उसने यही सुना था। लेकिन उसके साथ ऐसा नहीं है दिन पे दिन पति का रूखा व्यवहार उसे आशंका में डालता है। तरह-तरह के विचार उसके मन में आते हैं। कहीं उसके जीवन में कोई और तो नहीं? जिस हर छोटी बड़ी बात वो खुश हो जाया करता था, वही बातें उसे सुहाती नहीं हैं। जिन बातों के लिए वो हँसते हुए कहता था, तुम तो पागल हो और कितनी आसानी से सिखा देता था। उन्हीं बातों के लिए झुंझलाहट में कहता है," तुम्हें कुछ नहीं आता बेवकूफ़, गँवार।"


क्या वह नहीं जानता ₹20000 कमाने वाली लड़की जिसने सिर्फ उसकी माँ के कहने पर नौकरी छोड़ दी कि वह अपना घर आसानी से संभाल सके। उसे इसमें कोई परेशानी भी नहीं थी। वह चाहती थी कि वह अपनी गृहस्थी को समय दे। अपनी बेटी नंदिनी को समय दे। रश्मि के खुद के घरवाले भी यही चाहते थे, जो ससुराल वालों की इच्छा वो करो। पिता ना ले जाए लेकिन बच्चे का मन तो रखना ही पड़ता है। संडे के दिन भी उसको फुर्सत नहीं कि वह अपनी बेटी को कहीं घूमा लाए। आज नंदिनी को लेकर रश्मि को बाहर निकलना पड़ा। नंदिनी ने आज वो देखा शायद जो कभी नहीं देखना चाहिए था। पापों को किसी और औरत के साथ गले में हाथ डाले। अंदेशा तो पहले ही था लेकिन आज यकीन में बदल चुका था। आँखों से देखने के बाद अगर विरोध नहीं किया जाए ऐसा कम ही होता है और होना भी नहीं चाहिए।

" मेरा अधिकार तुम किसी और को कैसे दे सकते हो?"

वही हुआ जो होता है, पुरुष अपनी ग़लती को भी बड़ी शान से कबूल करता है," तुम मेरे लायक नहीं हो। मैं उसे चाहता हूँ। मैं उसी से शादी करूँगा।"

बढ़ती लड़ाई और तू तू मैं मैं में, एक सशक्त महिला को उसके पति ने बहुत मारा और उसे और अपनी बेटी को घर से बाहर निकाल दिया। सूनी गली और उन गलियों की छत से झाँकते पड़ोसी इस बात के गवाह रहे। इस रात में वो कहां जाएगी?


रिश्ते को ढोया भी जा सकता था ये कह, हमारे बच्चे का क्या होगा? उसका कोई फायदा नहीं, रश्मि की प्रेम और त्याग सब का अपमान हुआ था। जिस पति को आज उसने देखा था, उसे वह कभी नहीं जानती थी और एक अजनबी से कैसा समझौता? ससुराल पक्ष से सास ससुर ने पुत्र को समझाया," भरी हुई थाली में लात नहीं मारते बेटा। रश्मि संस्कारी है और अपनी बेटी की तरफ तो देख।"

"उन दोनों से मेरा कोई संबंध नहीं है। आप मेरी खुशी में खुश नहीं हैं? मैं जिंदगी भर ऐसे बोझिल रिश्ते नहीं ढो सकता। कल को मेरे खुद के बच्चे होंगे तो मेरी पत्नी को पसंद ना हुआ, उसकी लड़की को रखना।" उसकी लड़की? अब अपनी ही बेटी, सिर्फ रश्मि की लड़की रह गई थी उसके लिए। अंततः माँ बाप की जीत हुई और सास-ससुर हार गए। उन्हें अपना बुढ़ापा अपने बेटे के साथ नजर आता था। आखिर बहू तो पराई बेटी ही होती है। असहाय क्या सास-ससुर को पाल लेती? गाँव लौटती हुई बेबस और लाचारी से भरी हुई सास की आँखें आज भी नहीं भूलती, जब सब कुछ जुड़ जाने की चाहत में कमरे के बाहर खड़ी हुई रश्मि ने अपने ससुर के मुंह से सुना था," हो सकता है रश्मि में ही कोई कमी हो, लड़का लाज के मारे बता ना पा रहा हो। माँ बाप से कैसे खुल कर बात कर सकता है ? वरना वो तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। तुमने तो पाला है अपने हाथों से, तुम्हें अपने ही बेटे पर शक है। हो ना हो रश्मी में ही खोट है।" और सास का कमरे से निकलना हुआ।


रश्मि ने वहीं पति के घर के सामने कमरा किराए पर लिया। किसी दिन इसकी आँखों में आत्मग्लानि देखनी है। जमाने को दिखाने के लिए माता-पिता भी आए थे। घर चलो लेकिन रश्मि ये जानती थी, उस घर में भी इज़्ज़त ही सबसे बड़ी चीज है। जिसकी ख़ातिर आशुतोष से मेरी शादी नहीं होने दी। वही इज़्ज़त आज भी आगे आ जाएगी। कैसे भूल सकती है माँ के वचन, " शादी के बाद हमारी कोई जिम्मेदारी ना होगी कि लड़का अच्छा निकलेगा या बुरा।"

"फिर मुझे मेरी मर्जी से शादी क्यों नहीं करने देतीं? जब आप कहती हैं कि आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं।"

"अरे इतना पाल पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया नौकरी करने की आज़ादी दी, तो इसका मतलब यह थोड़ी है तुम हमारे मुंह पर कालिख पोत दोगी।"

"इसमें कालिख पोतने की बात कहां से आई?"

"गैर बिरादरी, आन जात का लड़का। थू थू करेंगे समाज में सब। हम तो घर से निकलने लायक नहीं रहेंगे।"


अपनी इज़्ज़त की ख़ातिर चार लोग यह कहे कि वाह रामकुमार जी ने कितनी सुविधाएँ दी हैं अपनी लड़की को पढ़ा लिखाकर पैरों पर खड़ा कर दिया और देखिए लड़का भी अपनी बिरादरी का ढूंढा है। रश्मि की शादी कर दी। उनकी 1 इंच की नाक 1 इंच और ऊंची हो गई, जब समाज के लोगों ने उनकी चारों तरफ वाहवाही की, देखिए जहां आत्मनिर्भर होकर लड़के लड़कियाँ मां-बाप की जरा भी लाज नहीं रखते, वही रश्मि ने माता-पिता की पसंद के लड़के से विवाह किया। इतने मुखौटे पहन दोगली दुनिया में इनसान जीता है। लड़का बिरादरी का था। अच्छा कमाता था। आशुतोष ग़रीब था और बिरादरी से संबंध नहीं रखता था। इज़्ज़त बेटी की खुशी से भी बड़ी थी। आज ना होगी कौन कह सकता है?" इतना पैसा खर्च करने के बाद भी लड़की घर में पड़ी है। बाहर कमाती थी। क्या पता शादी से पहले कहीं संबंध रहे हों, कौन जाने?" बिरादरी आज यह कहने में भी नहीं चुकेगी। इतनी मुश्किल से बढ़ी हुई नाक थोड़ी सी कट जाएगी। आज वही बेटी चाहकर भी हिम्मत नहीं जुटा पाती, उसी घर में वापस जाने की। इतना ही कहकर रह गई," मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। दस बीस हजार की नौकरी तो कहीं मिल ही जाएगी। मेरा और मेरी बेटी का ख़र्चा उसी से चल जाएगा।"


काफी बड़ा रिसेप्शन हुआ था, शादी के बाद पड़ोसियों से सुनने में आया। नई बीवी काफी अच्छी दिखती है और उतनी ही नखरेबाज भी। नंदनी ने कुछ दिन रास्ते में उसे देखकर पापा कहा। बच्चे समझदार होते हैं और लड़की है तो कुछ ज्यादा ही समझदार। गली के कोने पर जब भी रश्मि की नजर उससे मिलती, तो उसकी की नज़रें झुक जातीं, उसकी आत्मग्लानि रश्मि को संतुष्टि दिलाती थी जैसे बिना कुछ कहे ही उसने सब कुछ कह दिया। क्या समझते थे, छोड़ दोगे तो मर जाएंगे। तेरा अंत भी देखना है, कहते हैं ईश्वर न्याय करता है? धीरे धीरे पति ने रास्ता ही बदल दिया।

हर दूसरे दिन उसके के घर में झगड़े होते। आए दिन पड़ोसी रश्मि को बता जाते, आज पूरी रात वो घर के बाहर खड़ा रहा। ईश्वर पर विश्वास हो जाता है कि हां वह है। एक साल बाद ही उसके बैटा हुआ, पूरी गली दुल्हन की तरह सजाई गई, सिर्फ रश्मि को छोड़कर सभी समारोह में शामिल हुए थे। उसके पास निमंत्रण हो भी कैसे सकता था? होता भी तो जाती नहीं।


धीरे-धीरे नंदिनी और उसका बेटा जवान होने लगे। कई बार सुनने में आया कि उसने अपने बेटे को बहुत मारा, अपने ही घर में चोरी करते देख। बुरी संगत में पड़ गया, दुनिया भर के एब, कोई पड़ोसी अपने बच्चे को उसके साथ देखना नहीं चाहता। गली में अगर कुछ रह भी जाए, तो अक्सर यह बातें सुनने में आ जाती, उसके हाथ पड़ गया तो उठा ले जाएगा। राम जाने कैसा नशा करता है? सब बेचकर पी जाता है। शायद बारहवीं भी नहीं कर पाया। पड़ोसियों की बातें अब रशिम के कानों को ठंडक नहीं पहुँचाती थीं," देख लिया रश्मि तुझ जैसे हीरे को ठुकराकर कोयले को गले बाँध लिया।" वही पड़ोसी थे जो कुछ समय पहले कानाफूसी करते, " ज़रूर रशिम में दोष होगा, ताली एक हाथ से नहीं बजती।"

"अरे! बहन जी मैं तो कहती हूं माँ बाप के साथ चले जाना चाहिए था, रश्मि को। क्यों नहीं गई बड़ी ढीठ औरत है भाई।"


जब नंदिनी MBBS कर चुकी और पोस्टिंग भिलाई हुई, तब गली से निकलते हुए एक बार भी रश्मि ने मोड़कर उसके घर की तरफ नहीं देखा। जो बदले की भावना थी, सब समाप्त हो चुकी थी। अब कोई ऐसा नहीं था, जिसको नीचा दिखाया जाए या जिसकी नज़रों में आत्मग्लानि ढूँढी जाए। रश्मि अपनी बेटी को डॉक्टर का कोट पहना, उन गलियों से निकालकर नंदनी की सपनों की दुनिया में आ गई।

आज आठ साल बाद वही दिनेश जो नंदनी का पिता है, वह आज उसकी नजर में एक मरीज भी नहीं रहा," माँ बताइए ना, मैंने सही किया या गलत?"

"बेटा तुम एक बेटी होने से पहले डॉक्टर हो। तुमने यह गलत किया।" दूसरे दिन नंदिनी बहुत से सवाल अपनी आँखों में लिए आई," माँ तुम्हारे कहने पर मैं उसका इलाज करने के लिए राजी हो गई। सुना है, उनके बेटे ने सारी जायदाद छीनकर उन्हें उसी घर निकाल दिया, जिससे उन्होंने कभी हमें निकाला था।"

"सब समय का खेल है,बेटा।"

" आज उनकी नजरों में पछतावा था।"

"बेटा ये तुम अभी नहीं जान पाओगी, कब इनसान की नज़रों में पछतावा होता है, वो अगर आज इस स्थिति में ना होता और तुम एक डॉक्टर न होती, तो ऐसा पछतावा देखना बहुत मुश्किल था।"

"आपसे एक बात पूछूं माँ?"

"हाँ पूछो?"

"क्या आप उन्हें अब भी प्यार करती हैं?"


" नहीं रे, मैं प्यार नहीं करती। वो तो उसने तभी खो दिया था, जब उसने मुझे अपमानित कर घर से निकाल दिया था। प्यार इतना सस्ता भी नहीं होता, जितना उसे समझा जाता है, उसे कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। हां मैं उसकी गली में रहती थी, तब प्रतिशोध ज़रूर था मेरे अंदर लेकिन आज वो प्रतिशोध भी नहीं है। मैंने कल जो कुछ भी कहा वो इसलिए कहा कि मैं अपनी बेटी को एक अच्छा डॉक्टर बनते हुए देखना चाहती हूं और खुद को उसकी माँ के कहलवाकर गर्व अनुभव करना चाहती हूं, तुम ही मेरा अभिमान हो।"


 



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