उर्मिल
उर्मिल
जब भी गली से गुजरती हूं तो कोने में उस बड़े से घर को देख कर कुछ याद आता है। एक २ कमरों वाला घर और बड़ा सा आंगन।
उर्मिला सब उनको उर्मिल बोलते थे। बूढ़ी लगती थीं, हालांकि इतनी थी नहीं। कपड़ों को सिल कर गुज़र बसर करती। घर अपना था।
बाबूजी थे उनके, लाला जी कहते थे सब। मां! हां मां की बीमारी ही वजह थी, जो उर्मिल ने शादी ना करने का फैसला किया। अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी थी। बाबूजी की पेंशन शायद आती थी। एक भाई था जो अच्छा खासा कमाता, खाता था, वहीं नजदीक अपने परिवार के साथ रहता था। लेकिन किसी कारण से उस से कोई नाता नहीं रखा था।
फूल सहेजती, और हम बच्चे उनसे गुलाब मांगते रहते तो हमको फुसला देती थी। पूरा मोहलला उनको पसंद करता था। मेरी मां की भी दोस्ती थी, तो हमारे घर भी आती थी।
एक दिन जिस मां के लिए सब छोड़ दिया था वह उनको छोड़ गई। उफ्फ कितना बुरा हाल हुआ था, और कुछ समय बाद बाबूजी भी चल बसे। वह अकेली रह गई, वक्त ने संभलने का मौका नहीं दिया। मुझे याद है वो दिन जब हमने जबरदस्ती उनको साड़ी पहना के साझा दिया था, कितनी खुश लग रही और शर्मा भी रही थी। फोटो खिचवा के रख लिया था। उस दिन मुझे लगा कितने अरमानों को दबा रखा है इन्होंने।
वहीं उर्मिल आज नहीं रही, वक़्त ने एक ओर खेल खेला था, उनको कैंसर हो गया, बहुत इलाज करवाया, सब मोहल्ले वालों ने सेवा की, पर नहीं बची। कुछ दिनों बाद वकील ने आ कर उनकी वसीयत पढ़ी, सारे मोहल्ले के लोगों के नाम कुछ ना कुछ था। लेकिन किसी ने नहीं लिया। आखिर में सब उसी भाई को ही मिला जिस से कभी उनका नाता नहीं था।
