तू लौंग मैं इलायची, तेरे पीछे
तू लौंग मैं इलायची, तेरे पीछे


ये क्या गाना है भला ? लौंग इलायची ही बनना था तो इंसान क्यों हुए ? और अब जब इंसान हो तो लौंग इलायची बन जाने का शौक ? ये तो हद ही है न। आखिर क्या औकात है लौंग इलायची की ? किसी खेतों पहाड़ो में उगो, छटो, पिटो और हज़ार ट्रांसपोर्ट के लिए थैली या डब्बो में बंद हो जाओ। उसके बाद भी यंत्रणा ख़तम नहीं होती। क्यों ?
अरे क्युकी इनमे खुशबु जो है। खास जो हैं। ख़ास होना ही तो सबसे बड़ी बला है। हाँ, तो मैं बता रही थी की इसके बाद इनके साथ और क्या क्या होता है।
अब ये घरों में पहुंचेंगे, बरनियो में भरे जायेंगे और कभी चाय तो कभी खीर में उबलने के लिए कूटे जायेंगे।
जी। उबालने से पहले इन्हे न कुटो तो खुशबु कहाँ आती है पूरी। उसके बाद, अहा। आंखे बंद करके भी पुरे घर मोहल्ले को पता चल जायेगा इनके होने और न होने का।
अब इसमें किसका दोष ? किसका नुक्सान ? फायदा तो सरासर इंसानो का ही है लेकिन। क्यों न हो, शौकीन है हम और साथ में अंगूठे वाली एकलौती नस्ल। आजतक अपने जीवन को और सुन्दर, और भरपूर, और आसान, और लम्बा बनाने का अलावा हमने और किया क्या है ?
यहाँ डयनसोर न टिके पर हमें देख लो, अरबो के अरबो भरे पड़े हैं।
लेकिन जनाब तसल्ली नहीं है, अब तो हम लौंग इलायची बनकर ही दम लेंगे।
तो फिर क्या ?
ढूंढेगे अपने घर, अपने समाज और अपने आस पास ऐसे सुंगधित ख़ास आदमजात जो चुपचाप डब्बो में भर कही भी जाने को तैयार हो। जिसे बरनियो में सजे रहने से भी कोई आपत्ति नहीं। और हाँ, जब इन्हे कूट कर उबाला जाय तो ये तो चूं भी न करे, बल्कि अपनी खुशबु भर जाए न होकर भी सारे जहाँ में।
हाय ये क्या ? मैं तो औरतों की बात कर बैठी।
अच्छा भला तो गाना चल रहा था, इसमें भी न क्या क्या घुसेड़ देती हूँ मैं भी।
बेकार झमेला मोल लेती हूँ मैं भी, जाने भी दो "लौग इलायची" ऐसा करते हैं बस "तेरे पीछे हाँ जी हाँ जी" पर फोकस करते हैं
क्यों ?
सही रहेगा नहीं ?