हवा की बेटी
हवा की बेटी


“मैं हवा की बेटी हूँ. “
“पवन सुत से कोई रिश्ता ?”
“बड़े भाई है, युगो युगों, इसीलिए कभी मिलना नहीं हुआ”
“अच्छा ? कुछ कहना है अपनी सफाई में ?”
“अरे, पहले परिचय तो सुनलो पूरा ? रपट लिख रहे हो और जुर्म करने वाले का ब्यौरा लिखने में इतनी कोताही ?”
“ तो मैं कह रही थी, हवा की बेटी हूँ. बहुत तेज़ उड़ती हूँ. जगह जगह जाती हूँ. लोगो को जीवन देती हूँ. लेकिन क्या है न, घोर कलयुग ही है तो कई बार मेरा इतना फ्री होना भी नुकसान देह हो जाता है.
“कैसे ?”
“ प्रदुषण यार , और क्या। कितना गंद फैला है चारो ओर आजकल। भाईजान का जमाना अलग था , राम सीता टाइप के बॉस थेउनके। मेरा तो... खैर"
इंपेक्टर हवलदार सब हँसते है, एक दूसरे को देख कर।
“इसे थाने क्यों लाया बे, सीधा पागल खाने ले जा"
मुस्काती है हवा की बेटी. वही तो प्लान था. लेकिन अभी और पुख्ता कर लूँ।
“तो हवा हवाई ? क्या लायी हो हमारे लिए ? संदेशा ? “
“ अरे नहीं अंदेशा”
“अच्छा ? क्या ?“
“अब आपलोग सोच रहे हैं न , चाँद मैंने चुराया है , फॅमिली हिस्टोरी की वजह से"
पूरा थाना फिर से ठहाकों में गूँज जाता है.
“ अमावस है अमावस , पर हाँ तू तो पागल ही है न , बके जा"
“मैं जानती हूँ कहाँ है चाँद, ले कर जाऊंगी आप सब को"
“अच्छा ?”
“हाँ हाँ बिलकुल, शहर के एक कोने में ऐसी जगह है जहाँ वो सारे लोग रहते है जिनको देखा हैं मैंने रात रात भर चाँद को देखते और ठंढी आहें भरते , उनमे से ही कोई है पक्के से"
“ चल बे, बहुत समय बर्वाद किया इसने. जा पागल खाने छोड़ आ इसको. २-४ बिजली के झटके लगेंगे न तो अकाल जमीन में आएगी इसकी."
रिपोर्टिंग करके छोड़ आती है पुलिस, और मैं बेतहाशा ढूंढ रही हूँ वो पागल चकोर। यहीं कहीं होगा. जल्दी ढूंढना ज़रूरी है. मिल भी जाता है बेसुध हताश पागल खाने के अहाते में. ऐसे जैसे आखिरी सांस गिन रहा हो. उठाती हूँ उसको, गोद में लेती हूँ उसका सर और हाथो में चेहरा. साँसे वापस आती है, शायद मेरी खुशबु जान गया वो. आंखे खोल कर देखता भी है , एक ही पल में जैसे जीवित हो उठा है. मैं देखती हूँ उसको, मुझे भी यो उसकी साँसों में भरकर जीने की वजह मिल गयी है आज.
पास लाती हूँ मेरे होठ , उसके कानों के. जानती हूँ, ये रामवाण अब फूंकने का वक़्त आ गया है.
“सुन रहे हो ? मैं चाँद निगल गयी दैया रे.... अंग पे ऐसे छाले पड़े।"