ट्रेन फ्रेंड
ट्रेन फ्रेंड


बजाज जी तेजी से विरार साइड की ब्रिज से नीचे उतर रहे थे क्योंकि प्लेटफार्म नंबर 3 से भायंदर लोकल अब छूटने वाली थी। लेकिन वो यह लोकल मिस नहीं करना चाहते थे क्योंकि आज बाबू भाई का बर्थडे था वो भी षष्ठीपूर्ति वाला जिसे सभी ट्रेन फ्रेंडस ने धूमधाम से मनाने का फैसला किया था। चंदा भी निकला गया था। मोनजीनिस से केक लेकर आने की जिम्मेदारी बजाज जी को थी। घर से वो समय पर ही निकले थे लेकिन ट्रैफिक जाम के चलते लेट हो गए और ट्रेन छूटने की नौबत आ गयी। पीछे वाली फर्स्ट क्लास डब्बे के दूसरे गेट तक पहुँचते ही लोकल चल दी। अपने ग्रुप वालों ने उनको जल्दी से अंदर खींच लिया। वर्ना बाबू भाई का साठवाँ जन्मदिन बिना केक का ही मनता।
सभी लोगों ने तत्परता से बजाज जी और केक को सुरक्षित रूप से बर्थडे लोकेशन तक पहुँचा दिया जैसे ग्रीन कॉरीडोर बनाकर ट्रांसप्लांट के लिए हार्ट को पहुँचाया जाता है। रिबन बलून वगैरह लगाकर सेवन सीटर कम्पार्टमेंट डेकोरेट किया गया था। सबलोग को बजाज जी का समय से नहीं पहुँचना लापरवाही की हद लग रही थी। लेकिन उनके पहुंचने की सूचना मिलते ही पूरे माहौल में उत्साह का संचार हो गया। फटाफट केक काटने का कार्यक्रम पूरा किया गया। क्योंकि कुछ लोग बोरीवली में भी उतरने वाले रहते है जो मात्र पंद्रह मिनट बाद आ जाता है।
बर्थडे सेलेबेराशन के बाद नाश्ता का प्लेट सब को पहुँचा दिया गया। ट्रेन फ्रेंड्स के ग्रुप में किसी भी आयोजन में स्वतः स्फूर्त भागीदारी काबिले तारीफ होती है। सबलोग खुद से आगे आकर जिम्मेदारी उठाते हैं। होली दशहरा दीवाली का भी उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। हालाँकि अंदर ही अंदर कई सब-ग्रुप होता है जैसे ताश खेलने वाले, भजन करने वाले, शेयर मार्केट वाले और प्रॉन फिल्म में दिलचस्पी वाले कई प्रकार की मंडली है। लोग अपनी पसंद के हिसाब से उसमें सदस्यता ग्रहण कर लेते हैं और उसका एक ही तरीका है उस ग्रुप से नजदीकी बनाना और उनके बातचीत में हिस्सा लेना।
बर्थडे पार्टी सेलेबेराशन खत्म होने पर इसपर चर्चा शुरू हुई कि अगला षष्ठीपूर्ति किसका आनेवाला है। पता चला कि अगला नंबर मिश्रा जी का है लेकिन उमसे अभी चार साल बाकी है। षष्ठिपूर्ति और नार्मल बर्थडे में अंतर होता है। नार्मल बर्थडे का खर्च बर्थडे बॉय को करना पड़ता है और षष्ठिपूर्ति का खर्चा मित्र मंडली उठती है और ग्रैंड होता है।
ग्रुप के सीट पकड़ने वाले सदस्यों की थोड़ी अधिक वैल्यू रहती है क्योंकि वो ट्रेन रुकने से पहले ही चढ़कर पूरा सीट कब्जा कर लेते हैं। हॉं गेट जाम करने वाली प्रजाति अलग होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनको भले चर्चगेट जाना हो लेकिन वो गेट पर लटक कर ही जाएँगे। विंडो सीट मिलना ग्रुप मे आपकी अहमियत और स्वीकार्यता को दर्शाता है। आउटसाइडर को तो लोकल ट्रेन में सीट मिलना लगभग लॉटरी लगने जैसा है। ग्रुप वाले को तो मंडी पर भी एडजस्ट कर लिया जाता है।
सारी आपाधापी और मगज मारी केवल अंधेरी तक के लिए होती है क्योंकि वहाँ पर भीड़ का दबाव लगभग आधा हो जाता है। मुम्बई मे ट्रेन फ्रेंड्स की अनोखी विशेषता होती है।
इनकी जान पहचान ट्रेन में होती है और ट्रेन सफर तक ही सीमित रहती है। अधिकतर केवल एक दूसरे को चेहरे से पहचानते हैं।जो बहुत रेगुलर या वोकल होता है उसको उसके सरनेम या निकनेम से पहचानते हैं। बजाज ,तिवारी , मिश्रा , गुजु , भोसले , राठौड, बाबूभाई, बीपी, अंधेरी बाबा, एडा,बटला, वकील , डॉक्टर , रिपोर्टर आदि।
ग्रुप मे लोग जुड़ते बिछड़ते रहते है। कुछ लोगों का टाइमिंग
चेंज हो जाता है जॉब चेंज होने के चलते , किसी का ट्रांसफर हो जाता है , कुछ अपनी गाडी से जाने लगते हैं। लेकिन एक बार यदि आप मेम्बर बन गए तो आप तबतक उस ग्रुप के मेंबर हैं जबतक आपके टाइम का एक भी मेंबर अभी तक कंटिन्यू कर रहा है। पुराने ग्रुप मेंबर का स्वागत गेस्ट विजिटर की तरह होता है। यदि किसी पुराने ट्रेन फ्रेंड ग्रुप से कोई आता है तो उसकी सदस्यता पहले दिन से ही कन्फर्म हो जाती है।
यहाँ पर लोग अपने दोस्तों का परिचय कराते हुए कहते है :
" दुबे जी से मिलिए ये मेरे 9.35 वाले ट्रेन फ्रेंड हैं।"
"मै इनको 8.25 के जमाने से जनता हूँ।"
"लगता है आपसे दोस्ती 9.52 मे हुई थी।"
ट्रेन फ्रेंड्स के बीच रोज नई और दिलचस्प कहानियाँ जन्म लेती हैं और आपको गुदगुदाकर और समझाकर चली जाती हैं।
एक रोज की बात है एक नए सदस्य आए और किसी तरह बड़ी मशक्कत से अंदर पैसेज में पहूँच गए। तभी उनपर बाबू भाई की नजर पड़ी। दोनो में हेलो- हाय हुआ। फिर बाबूभाई मेरे से मुखातिब होकर बोले तुम माने साहब को जानते हो ये भी जैसल पार्क मे ही रहते हैं। मैंने ना में सिर हिलाया और औपचारिकतावश पूछ दिया किस बिल्डिंग में ?
माने - फ्रेंड्स टॉवर
मै भी उसी मे रहता हूँ। आप कौन से विंग मे रहते हो ?
माने - बी विंग फिफ्थ फ्लोर
मैं भी उसी विंग और फिफ्थ फ्लोर पर ही रहता हूँ ! आपका फ्लैट नंबर क्या है?
माने - 504
अच्छा तो आप हर्ष के पापा हैं ! मेरा रूम नंबर 502 है।
माने - ओहो, आप ही दीक्षित जी है ! आपसे मिलकर अच्छा लगा।
लेकिन मै शर्म से पानी पानी हो गया यह जानकर की मुझे यह मालूम नहीं की मेरे ऑपोज़िट फ्लैट मे कौन रहता है और मै पेशे से पत्रकार हूँ।
ऐसी ही एक घटना है लखोटिया जी की। उनके बेटे-बहु उनपर काफी नाराज चल रहे थे। कारण था कि उन्होंने गाँव में घर बनाने पर बीस लाख रुपया खर्च किया था। उन लोगों को यह फालतू खर्चा लग रहा था क्योंकि वो दोनों भाई यही पर वेल सेटल्ड हैं और उनका अपना कारोबार है। उनका गाँव जाने का कोई चांस ही नहीं। फिर फालतू का इतना पैसा गाँव के घर में क्यों लगाना !
जब इस बात की चर्चा उन्होंने की तो सभी का मानना था की लखोटिया जी के बेटे सही कह रहे हैं। लेकिन उनका अपना तर्क था और वो भी लाजवाब था। यह बात 2012 की शुरुआत की है। उस समय जोरों की चर्चा थी की माया कैलेंडर के हिसाब से 2012 में पूरी दुनिया समाप्त हो जाएगी और सबसे ज्यादा खतरा समंदर के किनारे बसे शहरों पर था। उसके पहले मुम्बई ने 2005 का बाढ़ झेला था और 26/11 भी देखा था।
लखोटिया जी ने कहा मान लो किसी कारणवश तुमको मुम्बई छोड़ना पड़े और वो भी खाली हाथ तो तुम या तुम्हारी अगली पीढ़ी कहाँ जाएगी। यदि गाँव मे घर रहा तो कभी भी पुरखों के बेख पर लौट सकते हो। बस स्टैंड से पाँच किलोमीटर पर अपना गाँव है। तुमको या तुम्हारी औलाद को वहाँ कोई पहचानने वाल भी नही होगा। फिर भी जैसे ही अपने दादा या परदादा का नाम बताओगे तो लोग खातिर-भाव के साथ तुमको तुम्हारे घर तक छोड़कर आएंगे। यहाँ पर बिल्डिंग के नीचे भी नाम जानने वाला कोई नहीं है।
अतः जड़ से जुड़े रहने में ही समझदारी है।
यहाँ का तो दस्तूर है कि मुंह मुड़ते ही लोग कहना शुरू कर देते हैं कोई खास नहीं कैजुअल जान पहचान है। यहाँ दोस्ती भी मोहताज है ट्रेन के टाइमिंग का।
शायद यही कारण है कि संबंधों मे आत्मीयता, गहराई और तीव्रता का अभाव झलकता है। सब कुछ कामचलाऊ है लेकिन स्पीड बहुत फ़ास्ट है।